देश की राजधानी दिल्ली इन दिनों अत्यधिक प्रदूषण की मार झेल रही हैयह समस्या हर साल के एहै जब प्रदूषण बढ़ता है, बयानबाजी शुरू हो जाती है। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल और आर्थिक राजधानी इंदौर भी दिल्ली के प्रदूषण की बराबरी करने को आतुर हो रही हैं। कई वर्षों प्रदूषण की समस्या का समाधान अभी तक नहीं खोज नहीं पायी हैं सरकारें। वरिष्ठ पत्रकार श्री जयराम शुक्ल ने इस समस्या पर बेबाकी से अपनी बात कही है “हवा-पानी में बेइमानी घोलने वालो सुनों ! आलेख में

। इस गम्भीर समस्या पर आपकी  प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।– सम्पादक

*************************************

 

हवा-पानी में बेइमानी घोलने वालो सुनों!

 

  • जयराम शुक्ल

 

खेती के आधुनिकीकरण ने हल बैल को खेतों से निकाल बाहर किया। लोभ सिर्फ अन्न का बचा। मशीनें खेत से सीधे अन्न निकालती हैं। पहले इस अन्न में मवेशियों, पक्षियों, कीटपतंगों का हिस्सा होता था। किसान अब इसे सीधे हड़प जाता है। इन मूक प्राणियों की बद्दुआ तो लगेगी। पराली जलाने की समस्या पिछले 30 साल से है। इतने वर्षों में यदि कृषि व विज्ञान के अखिल भारतीय संस्थान कोई हल नहीं खोज पाए तो इन्हें बंद कर देना चाहिए।

 

देशभर का अमन चैन हरने वाली दिल्ली की नीद हराम है। वो धुंधकाल से गुजर रही है। हर साल यह और गहन होता जा रहा है। मैंने मित्र से पूछा तो बोले - पता नहीं, किनके पापों का फल भोग रहा हूँ। फिर दार्शनिक अंदाज में बोले - जानते हो, ये स्माँग गली-गली क्यों घूमता है.. वह इसलिए कि वायुमंडल में झूठ, फरेब, मक्कारी, वादा-खिलाफी का आवरण ओजोन परत की तरह छाया हुआ है। नीचे की हवा जाए तो जाए कहाँ ?  यहीं की यहीं मंडराती रहती है। आखिर ऊपरवाला तो सबके ऊपर है, संसद और सुप्रीम कोर्ट से भी बड़ा। मित्र की खीझ मैं क्या, कोई भी समझ सकता है।

हमारे यहां जिसकी सबसे ज्यादा ख्याति, वही सबसे ज्यादा खराब हालत में। गंगा मैय्या को ही ले लीजिए, दुनिया में सबसे प्रदूषित नदी। पापियों का पाप अब जज्ब नहीं कर पा रही। पिछला कुंभ जब लगा था तो मैं कई साधुओं के डेरे में गया। वहां बाहर से मंगाए गए मिनिरल वाटर के पीपे थे। वे बाहर का लाया पानी पी-पीकर गंगाजल की महिमा का बखान करते थे। बेचारे भगत सडांध मारते गंगाजी के पानी से आचमन करते। ये ढोंढकविद्या खूब चलती है अपने यहाँ। कानपुर के चमड़ा फैक्टरियों का धोवन बड़े नाले के रूप में गंगजी से जा मिलता है। आज भी हर दिन लाखों अधजले मुरदे तिरोहित कर दिए जाते हैं। भक्ति भाव इतना बेरहम कि रोजाना टनों पन्नियाँ, प्रसाद, नरियल, चढ़ावे के साथ विसर्जित कर दी जाती हैं। मुरदे की राख जब तक गंगा मैय्या में न प्रवाहित करो उसे सरग मिलेगा ही नहीं। हमने सरग की लालसा में गंगा मैय्या को नरक में बदल दिया। 

नदियां वोटों की वाहक बन गई हैं। गंगा मैय्या लगभग पूरा यूपी, बिहार कवर करती हैं। सो हर चुनाव के घोषणा पत्र में गंगा मैय्या की सफाई रहती है। राजीव गांधी के जमाने में तो पं. कमलापति त्रिपाठीजी की राजनीति ही विसर्जित कर दी गई, पर गंगाजी साफ नहीं हुईं। इस सरकार ने गंगा मंत्रालय बना दिया। शुरूआत धूम-धड़ाके से हुई, अब वही ढाँक के तीन पात। कोई बताने वाला नहीं कि गंगा मैय्या इस सदी में साफ भी हो पाएंगी कि नहीं। दूसरे अब नर्मदा को पकड़ा है। आधे मध्यप्रदेश से पूरे गुजरात तक की राजनीति भी इनकी धारा के साथ बहती है। एक राजनीतिक परिक्रमा हो गई, अब दूसरी चल रही है। राजनीति की वक्रदृष्टि राहुकेतु की भाँति होती है। जिस पर एक बार भरपूर पड़ जाए, तो वो गया काम से।

दिल्ली पर ये वक्रदृष्टि मुगलों के जमाने से लगातार है। फिर अँग्रेजों की बनी रही। अब अपनी है। महाभारत के समय हस्तिनापुर रहा, फिर यहीं पड़ोस में इंद्रप्रस्थ बसाया गया। कहते हैं, इंद्रप्रस्थ इंद्र की नगरी से भी बढ़िया थी। मुगलों ने पुरानी दिल्ली आबाद किया। अँग्रजों को वह नहीं भाया तो लुटियंस जोन बना दिया। यहां लाटसाहब लोग रहते थे। अब भी वही रहते हैं पर देसी। अँग्रजों ने यहां की सड़कों को मध्यकाल के क्रूर मुगल बादशाहों के हवाले कर दिया। अब भी जाओ तो बाबर से लेकर बहादुरशाह जफर ही नजर आँएगे। इस दिल्ली के साथ सबने राजनीति की, सबने अपने-अपने हिसाब से भोगना चाहा। बेचारी उफ तक न कर सकी। यहां की जमीन प्लास्टिक में बदल नहीं पायी लेकिन, जमीन पर वही बोझा लाख गुना ज्यादा। सहनशक्ति से ज्यादा बोझा लादोगे तो निर्जीव भी टें बोल देगा। दिल्ली अब टें बोलने लगी है। गाड़ियों का धुँआ आखिर कब तक अपने फेफड़े में जज्ब करे। इसे भी टीबी हो गई। इलाज करने वालों ने ही ये मर्ज दिया है तो इलाज कहां से हो। उच्च मध्यमवर्ग से शीर्ष धनाढ्यों तक गाड़ियों का काफिला स्टेटस सिम्बल बन गया। चार लोग हैं, चारों के लिए अलग - अलग सवारी। पब्लिक ट्रांसपोर्ट की तो मत ही पूछिए। यूरोप में सुनते हैं कि मंत्री, सांसद सब पब्लिक ट्रांसपोर्ट में चलते हैं। दुनिया के सौवें नंबर के गरीब भारत में मंत्री पब्लिक ट्रांसपोर्ट में चले तो पहाड़ टूट पड़े। वैसे दिल्ली को घेरने वाली अरावली की पहाड़ियां टूट रही हैं, पर खनन लुटेरों की तिजोरी भरने के लिए। बिल्डरों के लिए। कोई साधू बाबा कहता है कि उसे धूनी रमाना है तो सरकार कहती है - चले जाओ यमुना में, उसी को पाट लो और टैंट गाड़ लो। हम कुछ नहीं करेंगे। बस बदले में हमारी सरकार के लिए हवन कर देना और विरोधियों के लिए उच्चाटन। यमुना को गंदा नाला बनाया, अब उसे ही हजम करने में लगे हैं। ये सब उछिन्न भगवान् से भी नहीं देखा जाता। अवज्ञा की है तो भोगना ही पड़ेगा। एनजीटी जो भी सुझाए। मेरी मोटी बुद्धि कहती है कि एक सरकार ने लोगों की जबरिया नसबंदी की थी। आप भी नसबंदी का प्लान बनाओ। लेकिन ये नसबंदी आदमियों की नहीं, वाहनों की करो। आवश्कता से ज्यादा एक भी वाहन दिल्ली में न दिखे। हमारे मुख्यमंत्री ने वाशिंगटन से बढ़िया सड़कें बनवाई हैं। आप यूरोप से बढ़िया पब्लिक ट्रांसपोर्ट बना दो। हाँ, दूसरी नसबंदी एसी सिस्टम की करो। गरमी में यह गरीबों के हिस्से की शीतलता छीन लेती है। कड़ाई के साथ ये तीन काम कर दो फिर देखो, दिल्ली अपनी फिर उसी पुरानी रवानी में लौट आएगी।

और अंत में

--------------

कहते हैं दिल्ली को धुंधकाल में धकेलने के लिए हरियाणा और पंजाब के खेतों से उठने वाला धुआं दोषी है। देश के पर्यावरणविद् और कृषि शास्त्री यही बताते हैं। हमारे देश की शैक्षणिक अनुसंधान की संस्थाओं में सिर्फ समस्याओं को खोजने का तरीका सिखाया पढ़ाया जाता है..उसका हल भगवान के मत्थे छोड़ दिया जाता है।

 

खेत में धान का पुआल जलाने का चलन आज से नहीं है, पिछले तीस साल से है। इसके पीछे कृषि में क्रूर मशीनीकरण का योगदान है। पहले हल बैल से खेती की जाती थी। धान का पुआल और गेहूं का भूसा बड़े काम का होता था। कंताली में यही मवेशियों का भोजन था। पुआल के बिछौने से गरीब कड़कड़ाती ठंडी काटते थे। खेती के आधुनिकीकरण ने हल बैल को खेतों से निकाल बाहर किया। लोभ सिर्फ अन्न का बचा। मशीनें खेत से सीधे अन्न निकालती हैं। पहले इस अन्न में मवेशियों, पक्षियों, कीटपतंगों का हिस्सा होता था। किसान अब इसे सीधे हड़प जाता है। इन मूक प्राणियों की बद्दुआ तो लगेगी।

 

इस समस्या पर मैंने एक लोकल कृषि वैज्ञानिकों से बात की तो वे बोले - इसका समाधान चुटकियों में है। फिर बताया 200 एमएल डिकम्पोजर एक टन पुआल को पंद्रह दिन में सड़ाकर खाद में बदल देगा। मैंने कहा- उपलब्ध कराइए। वे बोले - अभी यह रिसर्च मैंने पढ़ी है। प्रोडक्ट के बाजार और किसानों तक पहुंचने में समय लगेगा। हमारे देश के औसत वैज्ञानिक ऐसे ही बतोलेबाज हैं। पराली जलाने की समस्या पिछले 30 साल से है। इतने वर्षों में यदि कृषि व विज्ञान के अखिल भारतीय संस्थान कोई हल नहीं खोज पाए तो इन्हें बंद कर देना चाहिए। ऐसे नाकारा संस्था भी सिस्टम में प्रदूषण ही हैं। यह जानता हूँ कि होगा कुछ नहीं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी है किसी में हिम्मत कि पराली जलाना रोक दे। गूजर, जाट, महार, मीणा, पंडित, ठाकुर सभी के सब हाइवे जाम कर देंगे, पटरियों में हुक्का पिएंगे, यदि किसी ने खेतों में जोर जबरदस्ती की जरा भी कोशिश की।

******************************  

वरिष्ठ पत्रकार श्री जयराम शुक्ल