महाराष्ट्र में हिंदी विरोध….. क्या बालीवुड का भी विरोध करेंगे ?................................. मधुकर पवार

राजनीतिक मतभेद और विरोध तो प्रजातंत्र का एक अहम हिस्सा है लेकिन महाराष्ट्र में हिंदी का जिस तरह विरोध हो रहा है, वह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। हिंदी और मराठी की लिपि देवनागरी है और सीखने तथा लिखने में सम्भवत: उतनी कठिनाई नहीं होती जितनी कि अन्य भारतीय भाषाओं को सीखने और लिखने में होती है। महाराष्ट्र में पहली से पांचवी कक्षा तक हिंदी पढ़ाने के आदेश का विरोध कर राज ठाकरे, उद्धव ठाकरे और शरद पवार ने लाखों बच्चों को एक भाषा सीखने से वंचित कर उनके भविष्य के साथ न केवल खिलवाड़ किया है बल्कि उनकी बहुमुखी प्रतिभा को निखरने में अवरोध भी लगा दिया है।
महाराष्ट्र में हिंदी विरोध…..
क्या बालीवुड का भी विरोध करेंगे ?
- मधुकर पवार
पूर्व उपराष्ट्रपति और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन - 1 के दौरान तत्कालीन ग्रामीण विकास मंत्री श्री वैंकैया नायडू ने इंदौर में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में बताया था कि छात्र जीवन में वे भी हिंदी विरोधी आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेते थे। लेकिन जब राष्ट्रीय राजनीति में दिल्ली आए तब महसूस हुआ कि बिना हिंदी के काम नहीं चल सकता। उन्होंने बताया कि वे पत्रकारों से लगातार संपर्क में रहकर हिंदी में ही बातचीत करते और धीरे-धीरे हिंदी सीख गए। जब वे भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता थे, तब लोगों ने टेलीविजन पर उन्हें हिंदी में लच्छेदार वक्तव्य देते और आम सभाओं में भाषण देते हुए जरूर सुना होगा।
आस्था चैनल पर योगाचार्य स्वामी रामदेव के योगाभ्यास शिविर में तमिलनाडु के मदुराई से एक दम्पत्ति भी शामिल हुए थे। स्वास्थ्य लाभ की चर्चा करते हुए महिला ने अपनी बात अंग्रेजी में रखी लेकिन उनके पति ने काम चलाऊ हिंदी में बताया कि उन्हें हिंदी नहीं आती थी लेकिन जब से आस्था चैनल पर घर में ही योग शिविर के दौरान योगाभ्यास करना शुरू किया, थोड़ी-थोड़ी हिंदी समझने और बोलने लगा हूं। यह सुनकर तसल्ली हुई कि मजबूरी में ही सही, हिंदी बोलना तो शुरू किया। भारत में तमिलनाडु ही एक ऐसा राज्य है जहां राजनीतिक कारणों से हिंदी का विरोध सबसे ज्यादा किया जाता है। भाषा के प्रति विरोध पूरी तरह राजनीतिक है जबकि वे यह भी जानते हैं कि देश में हिंदी ही एकमात्र ऐसी भाषा है जो पूरी देश में समझी और बोली जाती है। हालांकि तमिलनाडु में हिंदी के विरोध का पुराना इतिहास है और समय-समय पर हुए हिंसक आंदोलनों में अनेक लोगों को जान भी गंवानी पड़ी है। लेकिन जब यही भाषा रोजगार से जुड़ जाती है तो हिंदी के घोर विरोधी भी हिंदी बोलने से कोई गुरेज नहीं करते और काम चलाऊ हिंदी बोलना शुरू कर देते हैं। हिंदी भाषी प्रदेशों में तमिलनाडु से रोजगार के लिए आए व्यक्तियों को उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है।
ऐसे सैकड़ों ही नहीं बल्कि हजारों, लाखों उदाहरण दिए जा सकते हैं जिनसे यह बात प्रमाणित होती है कि हिंदी ही भारत की एकमात्र सम्पर्क भाषा है जो प्राय: सभी राज्यों में बोली जाती है, हिंदी को समझने और बोलने वाले देश के हर कोने में मिल जायेंगे। फिल्मों ने हिंदी को लोकप्रिय बनाने में भी अहम भूमिका निभाई है और बालीवुड में हर साल एक हजार से अधिक हिंदी में ही फिल्में बनती हैं। हिन्दी के प्रचार – प्रसार का एक महत्वपूर्ण माध्यम फिल्में, जो भारत ही नहीं बल्कि विश्व के अनेक देशों में प्रदर्शित होती हैं। इन फिल्मों के साथ बालीवुड अर्थात बाम्बे यानी मुम्बई का नाम भी जुड़ा है, हिंदी के बारे में कहीं भी विरोध में कोई स्वर सुनाई नहीं देता है।
लेकिन कुछ दिनों से महाराष्ट्र की राजनीति के केंद्र में हिंदी का मुद्दा छाया रहा जब तक कि महाराष्ट्र सरकार ने पांचवी कक्षा तक हिंदी को एक विषय के रूप में पढ़ाने के आदेश को निरस्त नहीं कर दिया। महाराष्ट्र की जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार ने हिंदी को पांचवी कक्षा तक एक विषय के रूप में पढ़ाने का आदेश जारी किया था। इस आदेश के विरोध में राज ठाकरे ने विरोध जताया और अब शिवसेना (उद्धव) भी राज ठाकरे के साथ मिलकर 5 जुलाई को हिंदी के विरोध में एक आमसभा करने वाले हैं। बहती गंगा में हाथ धोने की तर्ज पर शरद पवार ने भी राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे का समर्थन कर यह जता दिया है कि वे भी महाराष्ट्र की राजनीति में कोई भी अवसर नहीं छोड़ना चाहते।
महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी तो हिंदी की पक्षधर है लेकिन क्या सरकार में उसकी सहयोगी शिवसेना (शिंदे) और एन.सी.पी.(अजीत पवार) भी क्या इस मुद्दे पर सरकर के साथ है ? प्रथम दृष्टया तो यही लग रहा है कि वे हिन्दी को अनिवार्य विषय बनाने के पक्ष में सरकार के साथ में है लेकिन मुख्यमंत्री श्री देवेंद्र फ़ड़णवीस ने समझदारी दिखाते हुए पहले तो हिंदी पढ़ाना एच्छिक कर दिया लेकिन बाद में आदेश को निरस्त कर हिंदी विरोध के स्वर को दफन कर दिया।
राजनीतिक मतभेद और विरोध तो प्रजातंत्र का एक अहम हिस्सा है लेकिन महाराष्ट्र में हिंदी का जिस तरह विरोध हो रहा है, वह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। हिंदी और मराठी की लिपि देवनागरी है और सीखने तथा लिखने में सम्भवत: उतनी कठिनाई नहीं होती जितनी कि अन्य भारतीय भाषाओं को सीखने और लिखने में होती है। महाराष्ट्र में पहली से पांचवी कक्षा तक हिंदी पढ़ाने के आदेश का विरोध कर राज ठाकरे, उद्धव ठाकरे और शरद पवार ने लाखों बच्चों को एक भाषा सीखने से वंचित कर उनके भविष्य के साथ न केवल खिलवाड़ किया है बल्कि उनकी बहुमुखी प्रतिभा को निखरने में अवरोध भी लगा दिया है। ये ही बच्चे जब बड़े होकर विभिन्न क्षेत्रों जैसे अखिल भारतीय सेवाएं, सेना, राजनीति, व्यवसाय आदि में अपना केरियर सवारेंगे तब उन्हें निश्चित ही हिंदी में बोलने और लिखने की जरूरत पड़ सकती है। जब मराठी भाषी हिंदी प्रदेशों में काम शासकीय सेवा, व्यवसाय आदि करते हैं तब हिंदी में काम करने में उन्हें काफी परेशानी होती है। हिंदी और मराठी भाषा की लिपि के होने के कारण वे किसी तरह काम तो कर लेते हैं लेकिन मात्राओं सम्बंधी त्रृटियां अक्सर होते ही रहती हैं।
अब यह प्रश्न उठना भी स्वाभाविक है कि क्या अब राज ठाकरे, उद्धव ठाकरे और शरद पवार हिंदी बोलना पूरी तरह बंद कर देंगे ? यदि उन्हें बच्चों को हिंदी पढ़ाने और सीखने से परेशानी हो रही है तो तीनों नेताओं और उनके समर्थकों को हिंदी बोलना बंद कर देना चाहिए। यही नहीं, मुम्बई में हिंदी फिल्मों के निर्माण और प्रदर्शन पर भी पूरी तरह रोक लगाने के लिये आंदोलन और महाराष्ट्र बंद करने जैसे हथकंडे अपनाने चाहिए। हिंदी का विरोध करने वाले राजनीतिक दलों को कथनी और करनी में कोई भेद न करते हुए उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए। यानी केवल मराठी में ही संवाद करें और मराठी में ही लिखें - पढ़ें। किसी भी हिंदी राष्ट्रीय समाचार चैनलों पर भी प्रतिबंध लगाने के लिये आंदोलन करना चाहिए।
वास्तव में नई शिक्षा नीति में प्रावधान है कि छात्रों को तीन भाषाएँ सीखनी होंगी, जिनमें से कम से कम दो भारतीय भाषाएँ होनी चाहिए। विदेशी भाषाओं को पढ़ाने के लिये देश में शिक्षकों की कमी तो है ही, फिर भाषा को जब रोजगार से जोड़कर देखते हैं तो इसमें सबसे उपयुक्त भाषा हिन्दी ही है। महाराष्ट्र के संदर्भ में ही चर्चा करें तो त्रिभाषा में मराठी और अंग्रेजी के अलावा तीसरी भाषा हिंदी ही हो सकती है क्योंकि अन्य भारतीय या विदेशी भाषा के शिक्षकों की व्यवस्था करना आसान नहीं होगा। यदि हिंदी सीखने की बाध्यता भी कर दी जाती है तो हिंदी के शिक्षक आसानी से उपलब्ध हो जाएंगे। इससे रोजगार के अवसर भी सृजित होंगे और भाषायी वैमणष्यता भी समाप्त होगी।
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