आज स्वामी विवेकानंद की जयंती है। इस अवसर पर प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक, वरिष्ठ पत्रकार और लेखक श्री जयराम शुक्ल ने स्वामी विवेकानंद के विचार और देश की वर्तमान परिस्थितियों पर विचारोत्तेजक आलेख “ धार्मिक बनिए, धर्मांध नहीं” में उन बातों का जिक्र किया जिनके चलते युवा भारत फिर से विश्व गुरू बन सकता है। श्री शुक्ल ने जो मुद्दे उठाए हैं, उन पर विचार और कार्यांवयन जरूरी है। अपनी राय से अवगत कराईएगा। आपको राष्ट्रीय युवा दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।  

         

धार्मिक बनिए धर्मान्ध नहीं!

 * जयराम शुक्ल

 

अगर मुझे फुटबॉल खेलने या गीता पढ़ने में किसी एक को चुनना पड़े तो मैं पहले फुटबॉल खेलना पसंद करूंगा, क्यों जब शरीर स्वस्थ होगा तभी मष्तिष्क को गीता का संदेश और मर्म समझ में आएगा"

                                                                           - स्वामी विवेकानंद

 

 

स्वामी विवेकानंद युवाओं के आदर्श हैं। उनकी जयंती पर युवा दिवस मनाया जाता है। उनके बारे में इतना कुछ लिखा पढ़ा जा चुका है कि एक औसत युवा भी कुछ न कुछ तो जानता ही है। स्वामीजी ने भारतीय ज्ञान परम्परा, अध्यात्म और सनातनी संस्कृति की कीर्ति पताका को विश्व में फहराया। अमेरिका धर्म संसद में दिए गए भाषण और फिर विद्वानों द्वारा की गई व्याख्या की वजह से उन्हें विश्वव्यापी ख्याति मिली।

युवाओं के भविष्य की जितनी चिंता स्वामीजी ने की, शायद ही किसी मनीषी ने की हो। वे हमेशा यह कहते- सृष्टि में जो कुछ भी श्रेष्ठ है वह तुम्हारे भीतर है, उसे पहचानो, उठो, जागो और लक्ष्य तक पहुँचो।

 विवेकानंद ने धर्म को तर्क की कसौटी पर परखने की सीख दी और कहा- धार्मिक बनो लेकिन धर्मान्ध नहीं

 उनकी प्रसिद्ध उक्ति है- कोई मुझसे पूछे कि गीता पढ़ोगे या फुटबॉल खेलोगे, मैं अवश्य ही पहले फुटबॉल खेलना चाहूँगा क्योंकि स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मानस के चलते ही गीता समझ में आएगी।

वे युवाओं के नेतृत्व वाले समाज की कल्पना करते और कहते हैं कि 100 विवेकी और सामर्थ्य युवा किसी भी क्षेत्र में क्रांति लाने में सक्षम हैं। 

वे युग की अच्छाइयों को देशानुकूल ढालने और अपने देश की विशिष्टता को युगानुकूल बनाने की बात करते थे।

स्वामीजी ने यूरोप और अमेरिका में जगह-जगह पहुँचकर व्याख्यान दिए। भारत की पुरातन और सनातन विशिष्टता को जन-जन तक पहुँचाया। वे जीवन पर्यंत भारतीय सनातनता और मेधा को वैश्विक क्षितिज देने के लिए प्रयत्नशील रहे। 

कभी-कभी विचार आता है कि यदि स्वामीजी अमेरिका न गए होते तो क्या उनको इतनी ख्याति मिलती? शायद नहीं। इसलिये ऐसा लगता है कि उनके समकालीन और भी कई ऐसे उद्भट विद्वान रहे होंगे जिन्हें विदेश जाने का अवसर नहीं मिला इसलिये वे वैश्विक नहीं हो पाए। और यहां अपने देश में उनके गुन के गाहक नहीं मिले।

हमारी आज भी यही सबसे बड़ी ग्रंथि है कि हम अपने ही गुन के गाहक नहीं हैं। ..घर का जोगी जोगड़ा आन गाँव का सिद्ध..। इस प्रवृत्ति ने भारतीय मेधा का बड़ा नुकसान किया है। समय के साथ कम होने की बजाय आज वह नजरिया और भी मजबूत हो चुका है।

 कुछ बरस पहले एक वैज्ञानिक वेंकटरामण रामाकृष्णन को रसायन विज्ञान में नोबेल पुरस्कार मिला, संभवतः 2009 में। वे गुजरात के बड़ौदा में पढ़े थे। बाद में विदेश गए और ट्रिनटी यूनिवर्सिटी में पढ़ाई व शोधकार्य पूरा किया। पुरस्कार मिलने के बाद उनके इंटरव्यू का वो कथन याद है जिसमें उन्होंने यह बताया था कि भारत में प्रतिभाओं को किस तरह हतोत्साहित किया जाता है। आगे बढ़े नहीं कि टाँग खींचने के लिए अपने ही लोग तैयार।

व्यंकटरामण ने यह भी बताया था कि मेरे साथ पढ़ने वाले कई छात्र तो मुझसे भी मेधावी थे। उनके वे साथी आज भी होंगे अपने ही भारत में किसी स्कूल व कालेज में पढ़ा रहे होंगे या पटवारी-कानूनगो बनकर गृहस्थी चला रहे होंगे। 

मेधावी होते हुए वे नोबल तक इसलिये नहीं पहुँच पाए कि विदेश गए नहीं और देश के लिए देसी के देसी बने रहे।

विज्ञान, धर्म आध्यात्म के अलावा अन्य क्षेत्रों में भी देखें तो अपने यहाँ उसी को प्रतिष्ठा मिली जो 'फारेन रिटर्न' रहा। सत्तर के दशक तक तो 'फारेन रिटर्न' शब्द सभी डिग्रियों पर भारी पड़ता था, भले ही कोई विदेश से टैक्सी ड्रायवरी करके लौटा हो।

स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में अगली पंक्ति के प्रायः सभी नेता विदेश के पढ़े हुए थे, यहां तक कि देशज राजनीति करने वाले डाक्टर राममनोहर लोहिया भी। लोहिया को छोड़कर प्रायः ऐसे सभी इंग्लैण्ड ही पढ़ने गए और लौटकर उसी के खिलाफ संग्राम शुरू किया। (लोहिया ने जर्मनी में पढ़ाई की थी)

आप कह सकते हैं कि उन दिनों अपने देश में उच्चस्तरीय शिक्षण संस्थान नहीं थे इसलिए गए। पर मैं मानता हूँ कि विदेश में प्रतिभा की कदर रही होगी और बिना भेदभाव के पढ़ाई होती रही होगी इसलिए जो वहाँ से पढ़कर लौटे तो अँग्रेज बनकर नहीं, पक्के राष्ट्रभक्त होकर लौटे, विदेश की संस्कृति की रौ में बहे नहीं।

विदेश के लोगों व वहाँ की शिक्षापद्धति में कुछ ऐसी खास बात तो है कि वहाँ प्रतिभा का सम्मान होता है, इसीलिए भारतीय मूल के न जाने कितनों को नोबेल समेत अन्य सम्मान मिले। आज भी कई वहाँ की संसद में हैं, मंत्री, गवर्नर और कई देशों के राष्ट्रपति भी। 

क्या आपको यह नहीं लगता कि हम एक ऐसी हीनग्रंथि के शिकार बन चुके हैं जिसके चलते खुदपर ही भरोसा नहीं रहा और उसे ही अपनी नियति मान लिया। हमारा चरित्र इतना ईर्ष्यालु हो चुका है कि दूसरे की प्रतिभा को बर्दाश्त नहीं कर पाते। 

 हमारी नजरों में वही बड़ा लेखक, वैज्ञानिक, दार्शनिक, फिल्मकार है जिसे बुकर, पुल्तिजर, नोबेल, आस्कर मिलते हैं। अपने यहाँ रहके कोई भले ही आसमान के तारों को छूले वह घर के जोगी का जोगी ही बना रहेगा।

ऐसा क्यों है?  इस पर जब भी विचार करते हैं तो पीछे की ओर लौटना पड़ता है। भारत ने विश्व ज्ञानकोष को जितना भी कुछ दिया है, वह सातवीं शताब्दी के पहले। चरक, कणाद, भाष्कराचार्य, आर्यभट्ट, पाणिनी, भरतमुनि, नागार्जुन आदि सभी वैज्ञानिक सातवीं सदी के पहले ही हुए हैं। इसके बाद भारत में मौलिक वैज्ञानिक अन्वेषण की परम्परा खत्म सी हो गई।

 सातवीं सदी के पहले तक भारत की स्थिति वही थी जो इंगलैड और अमेरिका की आज है। 

नालंदा और तक्षशिला विश्वविद्यालय थे जहाँ विश्व भर से छात्र वैसे ही पढ़ने आते थे जैसे आज कैम्ब्रिज, आक्सफोर्ड और ट्रिनटी जाते हैं।

 विदेशी हमलावरों ने धन, दौलत और राज्य बाद में लूटा, उनके पहले निशाने पर यहां के शैक्षणिक संस्थान और यहां की ज्ञान परम्परा रही।

 बख्तियार खिलजी ने जब नालंदा में आग लगाई तो उसके सैनिक महीनों किताबों को तापते रहे। मध्यकाल तक आते - आते सब कुछ लगभग नष्ट हो गया। इसलिये जितने भी ज्ञानी थे, सबने खुद को ईश्वर के हवाले कर दिया। साहित्य में भक्तिकाल इसी परिस्थितिजन्य मजबूरी का नाम है।

 अँग्रेज यहाँ आए तो उन्होंने भारतीय शिक्षा संस्कृति व गुरु-शिष्य परंपरा की जाजम ही पलट दी। हम पर ऐसी शिक्षा पद्धति थोपी जो हमारे खुद के वजूद पर ही संदेह पैदा करने वाली थी, उसी को आज भी हम ओढ़े-दसाए चल रहे हैं।

हमारा सनातनी ज्ञान और कृतियाँ को जो कैसे भी श्रुति-स्मृति के जरिए चलती चली आईं, उन्हें अँग्रेजों ने मिथ करार देकर खारिज करना शुरू कर दिया। अब देसी अँग्रेज उसी परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं।

आज हालात यह है कि अमेरिका के नासा ने भले ही रामसेतु के अस्तित्व की पुष्टि की हो पर जब हम राम-रामायण, कृष्ण-महाभारत की बात करते हैं और उसे अपने सनातनी गौरव के साथ जोड़ते हैं तो कोई विदेश में रहने वाले नहीं, यहाँ के अपने ही देसी विद्वान चढ़ बैठते हैं, बोलने वाले का गला पकड़ लेते हैं।

 बहस शुरू हो जाती है कि राम-कृष्ण काल्पनिक पात्र हैं, इनका हमारे इतिहास से कोई वास्ता नहीं। रामायण-महाभारत में दर्ज प्रसंग महज मायथालाजी हैं, कवियों की कोरी कल्पना।

जिन विद्वानों और अन्वेषकों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे भारत की सनातनी संस्कृति, यहां के शोध-अनुसंधान के बिखरे सूत्रों को सहेजकर फिर उसी गौरव को वापस लाने की दिशा में काम करें, वे पूरा वक्त इसी खोज में लगा देते हैं कि हम पूर्वकाल की भारतीय ज्ञान की पूँजी को कैसे पुंगी में बदल दें। 

अपने देसी बौद्धिकों की इस अधकचरी नस्ल ने देश का सबसे ज्यादा बेडा गर्क किया है। इन्हीं के बनाए वातावरण के चलते हमारा आत्मविश्वास इतना खोखला हो गया है कि जब किसी प्रतिभा को विदेश में सम्मान मिलता है तभी हम उसे स्वीकार करते हैं। 

इन्हें यह बात भी अच्छे से जान लेना चाहिए कि स्वामी विवेकानंद ने शिकागों में उसी सनातनी दर्शन और इन अधकचरे बौद्धिकों द्वारा घोषित कर दिए गए मिथकों और मायथालाजी के ही दृष्टांत देकर भारतीय मेधा की धाक जमाई।

राजनीति ने भी कुछ कम नुकसान नहीं किया। भारत में यह केंद्रीय तत्व बनकर गर्भगृह में प्रतिष्ठित हो गई। अब तो कोई भी बात राजनीति से शुरू होती है और वहीं खत्म भी। 

राजनीति हमारी रगों में आ गई, वायुमंडल में छा गई, अब ज्ञान की रोशनी उसी से छनकर हम तक पहुँचती है। नजर उठाकर देखें, अपने यहाँ गली, मोहल्ले, नाले, नरदे से लेकर चौराहे, सार्वजनिक इमारतें, यहाँ तक कि ज्ञान-विज्ञान के संस्थान सभी नेताओं के नाम पर हैं।

 यूरोप घूमकर आने वाले बताते हैं कि वहाँ के वैज्ञानिकों, कलाकारों का इतना सम्मान है कि सड़क चौराहों की बात छोड़िए, हवाई अड्डे तक वैज्ञानिकों, कलाकारों के नाम पर हैं। 

आज हम यदि विश्वगुरु बनने की बात करते हैं तो प्रतिभाओं के आँकलन का अपना पैमाना बनाएं, उन्हें सम्मान दें, यह न ताके बैठे रहें कि जब बुकर मिलेगा, तभी बड़ा लेखक मानेंगे।

 विवेकानंद ने भारतीय स्वाभिमान की वैश्विक प्राण प्रतिष्ठा की। उन्हें युवाओं का आदर्श बनाएं, न बनाएं पूजें या न पूजें, भारत को हर क्षेत्र में स्वाभिमानी बनाए जैसी कि स्वामी जी की अभिलाषा थी। इस ग्रंथि को हिंद महासागर में विसर्जित कर दें कि जो कुछ विदेश से आ रहा है वही श्रेष्ठ है, यह धारणा बननी चाहिए कि हमारा अपना उससे भी श्रेष्ठ है। लेकिन यह लफ्फाजी नहीं वास्तव में हर मानदंड में श्रेष्ठ रहे, इसका भी जतन करें।

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श्री जयराम शुक्ल

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न्यूज़ सोर्स : जयराम शुक्ल