बदकिस्मत सिस्टम में 3 लाख 72 हजार नसबंदी के ऑपरेशन करने वाले एक डॉक्टर की गुमनामी ... वरिष्ठ पत्रकार विजय मनोहर तिवारी की जुबानी
बदकिस्मत सिस्टम में 3 लाख 72 हजार नसबंदी के ऑपरेशन करने वाले एक डॉक्टर की गुमनामी
- विजय मनोहर तिवारी
डॉ. ललित मोहन पंत एक ख्यातनाम सर्जन हैं और इन दिनों लगभग गुमनामी में हैं। एक समय नसबंदी ऑपरेशनों के अपने धुआंधार शिविरों के कारण वे संसार भर के मीडिया के आकर्षण बन गए थे। अपने 37 साल के कॅरिअर में वे केवल सर्जन ही रहे, उन्हें न शहरों के बड़े अस्पतालों में नियुक्ति की चाह रही, न किसी संस्थान में डायरेक्टर बनकर कुर्सी तोड़ने के बारे में सोचा और न ही लगातार फैलती मेडिकल की कारोबारी मंडी में अपनी दुकानें, शोरूम या उद्योग सजाए। वे गाँवों में ही भटकते रहे और इस भटकन से उन्हें मिला क्या ?
उन्होंने दूरबीन पद्धति से जीरो एरर पर 3 लाख 72 हजार नसबंदी के ऑपरेशन किए। ग्रामीण अंचल में एक दिन में पाँच से छह शिविरों में दौड़धूप करते हुए। औसत एक महीने में वे इन शिविरों के लिए सड़क मार्ग से 6 हजार किलोमीटर की यात्रा करते थे। यानी साल में 72 हजार किलोमीटर, जो धरती की दो परिक्रमाओं के बराबर की दूरी है। जनसंख्या विस्फोट से जूझ रहे पूरे भारत में उनकी टक्कर का तो दूर उनके आसपास टिकने वाला उनके कद का दूसरा डॉक्टर नहीं है। इन सर्जरियों के कारण वे 13 लाख से अधिक की नई आबादी धरती पर लाने से रोक पाए। दुनिया में 75 से अधिक देश ऐसे हैं, जिनकी कुल आबादी 10-12 लाख ही है। इस हिसाब से वे एक पूरे मुल्क का वजन धरती पर लाने से रोकने में सफल रहे।
वे दूरबीन वाले बाबा के नाम से गाँवों में जाने गए और अपनी समर्पित सेवाओं के लिए उन्हें कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय अवार्ड उन्हें मिले। ब्रिटेन के रॉयल कॉलेज ऑफ सर्जंस के डॉ. एडवर्ड सेक्सटेड एक बार किसी कॉन्फ्रेंस में इंदौर आए थे तो एयरपोर्ट पर ही सबसे पहले डॉ. पंत से मिलने की इच्छा प्रकट की। पता चला कि वे देपालपुर या बेटमा के पास किसी गाँव में अपने नियमित नसबंदी शिविर में हैं। डॉ. एडवर्ड उनसे मिलने के लिए इतने आतुर थे कि सीधे शिविर में ही जा पहुंचे थे। वह जर्जर इन्फ्रास्ट्रक्चर वाला मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की लीडरशिप का मध्यप्रदेश था, जब न सड़कें थीं, न बिजली। गाँवों के और बुरे हाल थे। गड्डों और धूल भरी सड़कों से एक गाँव से दूसरे गाँव के शिविरों में इंतजार करती महिलाओं के बीच डॉ. पंत का इंतजार किसी देवदूत की भांति होता था।
डॉ. एडवर्ड ने एक फटेहाल टेंट में सैकड़ों महिलाओं को देखा। भीतर एक कमरे में टेबलों पर डॉ. पंत धड़ाधड़ सर्जरी करते हुए देखे गए। स्टाफ की कमी को उन्होंने अपने ड्राइवर से लेकर चपरासी तक को ट्रेंड करके पूरा किया। वे हर टेबल पर चंद सेकंड के लिए ही जाते और तब तक उनके यही सहायक पूरी तैयारी करके रखते। जब तक वे एक से दूसरी टेबल पर जाते, यही स्टाफ महिलाओं को फुर्ती से लाता और बाहर ले जाता। किसी तेज रफ्तार मशीन की तरह वे हर दिन 400-500 सर्जरी करके देर रात इंदौर लौटते और फोन पर उस दिन की खास बातें मुझे सुनाते, तब मैं नई दुनिया में था।
डॉ. एडवर्ड ने डॉ. पंत को काम करते हुए देखा तो लगभग गश ही खा गए। वे ब्रिटेन में हर दिन बमुश्किल पाँच सर्जरी कर पाएं तो बहुत बड़ी बात थी और यहाँ तमाम असुविधाओं के बीच एक डॉक्टर शतक जड़ रहा था, बिना कमियों का रोना रोए। डॉ. पंत अपनी सेवाओं के आखिर तक या तो दम साधकर सर्जरी ही करते रहे और अवसर मिला तो नए डॉक्टरों को तैयार किया। उनके जमीनी अनुभव को देखते हुए तब की केंद्र सरकारों ने फैमिली प्लानिंग से जुड़े नीतिगत फैसलों की कमेटियों में उन्हें रखा। उनका नाम कई साल तक पद्म अवार्ड के लिए भेजा गया लेकिन किसी की निगाह में नहीं आया। स्वास्थ्य विभाग में आए ज्यादातर नौकरशाहों को उनकी लोकप्रियता फूटी आँखों नहीं सुहाती थी। कौन ऊपर कहता कि डॉ. पंत किसी भी पद्म पुरस्कार से बड़े हैं।
इंदौर में मैं कई साल रहा और डॉ. पंत उन गिने-चुने लोगों में से हैं, जिनसे मेरा आज भी जीवंत संबंध है। मेरे मन में उनके प्रति अगाध सम्मान है और मैं मानता हूं कि वे राज्य और केंद्र सरकारों की ओर से अधिक ऊंचे पदों और सम्मान के अधिकारी थे, जिनके लिए सारे नियम शिथिल करके उनका उपयोग किया जाना चाहिए था। लेकिन कुछ वर्ष पहले वे दूसरे डॉक्टरों की तरह सेवानिवृत्त हो गए। दो बार उनकी सेवाएँ बढ़ाई गईं लेकिन मैंने देखा कि अपने किसी पसंदीदा को नियुक्ति देने के रास्ते में डॉ. पंत को एक बाधा मानकर दो कौड़ी के सीएमएचओ भी उन पर रौब गांठने से बाज नहीं आए। अंत में वे अलग हो गए और तीन साल से लगभग गुमनाम हैं।
24 में से 15-18 घंटे लगातार काम करने की आदत उन्हें रही थी। मैं 15 साल पहले से कह रहा था कि अब सर्जरी सीमित कीजिए। जनसंख्या वृद्धि केवल भारत ही नहीं पूरे विश्व की सबसे बड़ी समस्या है जो धरती के लिए बड़ी चुनौती बन गई है। भारत जैसे लचर लोकतंत्र में कुछ समुदायों में इसकी वृद्धिदर डेमोग्राफी बदल रही है और यही स्थिति कई विकसित देशों में है। मैं उनसे कहता रहा कि उन्हें अपने अनुभव, सरकारी नीतियों में सुधार, सरकारों की इच्छाशक्ति, विश्व की दृष्टि और भविष्य की धरती के हिसाब से किताबें लिखना चाहिए। इस विषय पर उनसे बड़ा अधिकारी कोई नहीं है, जो दुनिया को राह बता सकता है। वे अपनी क्षमता में अपना अधिकतम दे चुके हैं और अब उन्हें डॉक्टरों की नई पीढ़ी के लिए कुछ करना चाहिए। लेकिन हर बार उन्होंने मेरी बात सुनकर टाली। मैंने यहां तक कहा कि अगर वे चाहें तो किताब के लिए मैं उनके किसी भी काम आने के लिए तैयार हूं। हम एक विश्वस्तरीय दस्तावेज तैयार करेंगे। लेकिन वे अपनी लिखी कविताएं सुनाने में रुचि लेते।
मुझे लगता है परिवार नियोजन और स्वास्थ्य ऐसे विषय हैं, जिन पर लिखने से वे बच रहे थे। सच लिखने में संभव है कि सरकारों की खिंचाई करनी पड़ती, नीतियों को रगड़ना पड़ता जो कि एक लोकसेवक होने के नाते वे नहीं चाहते थे कि किसी किस्म के विवादों में वे पड़ें। मैं तो उन्हें नौकरी छोड़कर भी लिखने के लिए कहता रहा था। मगर उन्होंने एक नहीं सुनी। समय गुजर गया। अब वे सेवानिवृत्त हैं और अक्सर अस्वस्थ भी, जो स्वाभाविक भी है।
कोई भी संवेदनशील सरकार ऐसे प्रतिभाशाली निष्ठावान और अनुभव संपन्न सर्जन को कैसे गुमनामी में अकेला छोड़ सकती है? उन्हें नए सर्जन तैयार करने के लिए किसी मेडिकल यूनिवर्सिटी या विभाग में जीवनपर्यंत सर्वोच्च पद पर रहने के प्रस्ताव सम्मानपूर्वक जाने चाहिए थे। उनकी सेवाएं केवल प्रदेश ही नहीं देश के सभी मेडिकल संस्थानों को आवश्यक थीं।
वे देश में समर्पित स्वास्थ्य सेवाओं के एक आदर्श मॉडल बनाकर प्रस्तुत किए जा सकते थे, मंत्रियों के स्थान पर जिनकी तस्वीरें स्वास्थ्य विभाग के होर्डिंग्स और विज्ञापनों पर छपतीं। उन्हें परिवार कल्याण और स्वास्थ्य संबंधी नीतियों के निर्धारण में सबसे आगे रखा जाना चाहिए था। गाँवों की बदहाल स्वास्थ्य सुविधाओं को सुधारने के लिए डॉ. पंत के अनुभव कितने काम आ सकते थे? मगर अपनी ही धुन में रहने वाले सरकारी तंत्र के लिए उनकी हैसियत हजारों दूसरे डॉक्टरों में से एक से अधिक नहीं थी, जो एक दिन सेवानिवृत्ति के साथ दो बुके पकड़ाकर गुमनामी में जीने के लिए घर भेज दिए गए। और मीडिया को भी क्या मतलब है, कल अगर उन्हें कोई बड़ा अवार्ड मिल गया तो कैमरे लिए उधर दौड़ पड़ेंगे!
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प्रखर राष्ट्रवादी, चिंतक और सम सामयिक विषयों के साथ इतिहास पर शोधपरक पुसतक / आलेख लिखने वाले बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी श्री विजय मनोहर तिवारी ने प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में काम करते हुए अपनी अलग छाप छोड़ी है. उन्होने मध्यप्रदेश में सूचना आयुक्त के पद भी अपनी सेवाएं दी हैं. श्री विजय मनोहर तिवारी को अनेक प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाजा गया है. वर्तमान में वे लेखन के साथ - साथ बागवानी में भी हाथ आजमा रहे हैं.