आलेख........

आदिवासी समुदाय का पारंपरिक कृषि ज्ञान

  • राहुल डावर


       आदिवासी समुदाय भारत के मूल निवासी हैं, जिनकी संस्कृति, परंपराएँ और ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से संचालित होती आई हैं। इन समुदायों का खेती और जीवन के प्रति ज्ञान एक अद्वितीय दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है, जो आजकल की आधुनिक कृषि पद्धतियों से कहीं अधिक प्राकृतिक और स्थायी है। आदिवासी किसानों की खेती की पद्धतियाँ विशेष रूप से उनके पर्यावरण और संसाधनों के प्रति संवेदनशीलता को दर्शाती हैं।


आदिवासी खेती की पारंपरिक पद्धतियाँ:


    आदिवासी समुदायों की खेती की पद्धतियाँ पूरी तरह से प्रकृति से मेल खाती हैं और इनकी प्राथमिकता हमेशा स्थिरता और संतुलन बनाए रखने पर रही है। एक खास तरीका, जो इन समुदायों के बीच बहुत लोकप्रिय है, वह है दो फसल लेना, जैसे चना और मूंगफली की एक साथ खेती। यह पारंपरिक पद्धति न केवल भूमि का सदुपयोग करती है, बल्कि मृदा स्वास्थ्य को भी बनाए रखती है।


     दो फसलें अर्थात मिश्रित खेती का सिद्धांत यह है कि चना और मूंगफली जैसी फसलें एक दूसरे के साथ लगाने से भूमि के पोषक तत्वों का सही संतुलन बनाए रखने में मदद मिलती है। मूंगफली जैसे तिलहनी पौधे नाइट्रोजन को हवा से जमीन में समाहित करते हैं, जिससे मिट्टी की उर्वरा शक्ति बनी रहती है, जबकि चना जैसी दलहनी फसल को अधिक जल और पोषक तत्वों की आवश्यकता नहीं होती। इस प्रकार, दोनों फसलों की संयुक्त खेती से भूमि की उपजाऊ शक्ति बनी रहती है और किसान एक साथ दो फसलें प्राप्त कर सकते हैं।


पारंपरिक ज्ञान का संरक्षण


      आदिवासी समुदायों का यह ज्ञान पारंपरिक तरीके से मौखिक रूप पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ रहा है । प्रत्येक किसान और उनका समुदाय जानता है कि कब, क्या और कैसे उगाना है?  क्योंकि उनका यह ज्ञान केवल कृषि तक सीमित नहीं है, बल्कि मौसम, जलवायु और पर्यावरणीय कारकों से संबंधित भी होता है। हालांकि, इस ज्ञान का दस्तावेजीकरण  नहीं किया गया है, जिससे यह व्यापक रूप से लोगों तक नहीं पाया है।

      आज के आधुनिक समाज में जब उच्च-तकनीकी कृषि पद्धतियाँ और विज्ञान का प्रभाव बढ़ रहा है, ऐसे में आदिवासी समुदायों का पारंपरिक कृषि ज्ञान एक मूल्यवान धरोहर बनकर उभरता है, जिसे संरक्षित और साझा करने की आवश्यकता है।


आदिवासी समुदाय और प्रकृति के प्रति सम्मान


     आदिवासी समुदायों का प्रकृति के प्रति सम्मान और उसकी देखभाल करना उनकी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। वे प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक सम्मान करते हैं और हर प्रकार के संसाधन का उपयोग समझदारी से करते हैं। इनकी कृषि पद्धतियाँ रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के बिना होती हैं, और वे भूमि तथा जल के संसाधनों का संरक्षण करते हुए अपनी उपज पैदा करते हैं। यह उनके जीवन के प्रति समर्पण और प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करने की प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।


सारांश:

       आदिवासी समुदाय का पारंपरिक कृषि ज्ञान, जैसे एक साथ दो फसलें लेना, प्राकृतिक संसाधनों का सम्मान करना, और जीवन के प्रति संवेदनशील दृष्टिकोण रखने वाली पद्धतियाँ, हमें न केवल कृषि के लिए बल्कि जीवन के अन्य पहलुओं के लिए भी महत्वपूर्ण संदेश देती हैं। इसका संरक्षण और दस्तावेजीकरण करना अत्यंत आवश्यक है ताकि आने वाली पीढ़ियाँ इसे समझ सकें और इसकी महत्ता को पहचान सकें। आदिवासी किसानों का यह ज्ञान बिना किसी बाहरी सहायता के विकसित हुआ है, जो आज की दुनिया के लिए एक बहुत बड़ी शिक्षा है।

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राहुल डावर
छात्र,

एम. जनजातीय अध्ययनशाला, देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर

 

न्यूज़ सोर्स : डा. संतोष पाटीदार