पांढुर्णा में जाम नदी किनारे होगी आज दोपहर बाद होगी पत्थरों की बौछार

पांढुर्णा में जाम नदी किनारे होगी आज दोपहर बाद होगी पत्थरों की बौछार
पांढुर्णा / भोपाल. भारत सहित समूचे विश्व में ऐसी अलग – अलग परम्परायें हैं जिनको देख और सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं. गायों के पैरों तले कुचलने के लिये जमीन पर लेट जाना, बैलों को दौड़ाकर पकड़ना और एक –दूसरे पर दुश्मन के माफिक पत्थर फेंककर मारने जैसी अनेक परम्पराएं सदियों से यथारूप मामूली बदलाव के साथ चल रही हैं और इनमें स्थानीय निवासी पूरी श्रद्धा और उत्साह के साथ भाग लेते हैं. वे जानते हैं कि इस परम्परा के निर्वाह में घायल हो सकते हैं, जान भी जा सकती है लेकिन उनके जोश में किसी भी तरह की कोई कमी नहीं आई है.
ऐसी ही एक परम्परा मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा जिला से कुछ माह पहले अलग होकर अस्तित्व में आये पांढुर्णा जिला में गोटमार के आयोजन की है. दरअसल स्थानीय भाषा में गोटमार का शाब्दिक अर्थ गोटा यानी पत्थर मारने से लगाया जाता है. गोटमार भले ही दो विरोधी ( केवल गोटमार की अवधि तक) पक्षों के बीच पत्थर मारने के लिए मनाया जाता है लेकिन यह स्थानीय लोगों के लिए किसी त्योहार से कम नहीं है गोटमार त्यौहार पोला के दूसरे दिन आयोजित होता है जिसमें पांढुर्णा और सावरगांव के लोग नदी के दोनों किनारे खड़े होकर एक दूसरे पर पत्थरों की बौछार करते हैं. जाम नदी के दोनों किनारो पर बड़ी संख्या में स्थानीय निवासी अपना प्रेम और भाईचारा भूल कर किसी दुश्मनों के माफिक एक पत्थर फेंकते हैं जिसमें हर साल काफी संख्या में गोटमार खेलने वाले घायल हो जाते हैं. गोटमार के आयोजन के पहले पुलिस और स्थानीय प्रशासन पूरी व्यवस्था का मुआवना भी करते हैं और घायलों के इलाज की भी पूरी व्यवस्था करते हैं.
हालांकि प्रशासन ने गोटमार पर रोक लगाने के प्रयास किए थे लेकिन इसमें स्थानीय लोगों के विरोध के चलते सफलता नहीं मिल पाई और यह पत्थर मारने का त्योहार बदस्तुर जारी है. कहा जाता है कि एक बार गोटमार को रोकने का प्रयास किया गया था. जब दिन में पत्थर मारने की रस्म पूरी नहीं की गई तो रात में जाम नदी के दोनों किनारे के गांव सावरगांव और पांढुर्ना के निवासियों के घरों पर पत्थर गिरने लगे. कोई नहीं जान पाया कि यह पत्थर कौन फेंक रहा है? इस घटना के बाद गोटमार को रोकने का कोई भी प्रयास सफल नहीं हो पाया है.
गोटमार त्यौहार पोला के दूसरे दिन मनाया जाता है. पांढुर्णा और सावरगांव के निवासी जाम नदी पर पत्थर मारने की परंपरा निभाते हैं. मेले में भाग लेने वाले यानी पत्थरबाज मेला में शामिल होने से पहले आराध्य देवी मां चंडिका के दर्शन करते हैं. गोटमार मेला के समापन पर झंडा रूपी पलाश के पेड़ को मां चंडिका देवी के मंदिर में अर्पित करते हैं.
क्यों मनाया जाता है गोटमार ?
गोटमार परंपरा को शुरू करने के पीछे अनेक की किबदंतियां प्रचलित हैं. कहा जाता है कि पांढुर्णा के एक युवक का सावरगांव की एक युवती से प्रेम संबंध था. एक दिन युवक अपनी प्रेयसी को लेकर पांढुर्णा जाने लगा तो इसकी भनक सावरगांव के निवासियों को लगी. युवक - युवती नदी पार कर ही रहे थे कि सावरगांव के निवासी उन्हें रोकने के प्रयास में पत्थर बरसाने लगे. इसकी खबर पांढुर्णा के निवासियों को लगी तो उन्होंने भी पत्थर मारकर विरोध किया. इस पत्थरबाजी में युवक - युवती की मौत हो गई. उन्हीं की याद में हर साल पोला के दूसरे दिन जाम नदी के पुल के पास पलाश का पेड़ गाड़कर उसमें झंडी बांधते हैं. पेड़ पर लगी झड़ी को लाने के लिए दोनों पक्ष यानी सावरगांव और पांढुर्ना के निवासी जोर आजमाइश करते हैं. उन्हें रोकने के लिए पत्थरबाजी होती है जिसमें काफी लोग घायल भी हो जाते हैं. जो पक्ष पहले झंडी पर कब्जा कर लेता है वह विजय घोषित होता है. गोटमार को लेकर एक अन्य किबदंती के अनुसार जाम नदी के किनारे भोंसला राजा की सेना रहती थी. युद्धाभ्यास और निशाना लगाने में प्रवीणता के लिए नदी के बीचो-बीच एक झंडा गाड़कर पत्थरबाजी की जाती थी. लंबे समय तक यह परंपरा चलती रही और आगे चलकर यह गोटमार परंपरा में परिवर्तित हो गई जो आज भी चल रही है.