वीणा के संपादक राकेश शर्मा

आचार्य विद्यानिवास मिश्र पत्रकारिता सम्मान 2025 से अलंकृत 

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बोल रहे थे उपाध्याय और श्रोताओं को आभास होता रहा विद्यानिवास मिश्र को सुन रहे हैं

 

वरिष्ठ पत्रकार कीर्ति राणा की कलम से । मौका तो था वीणा के संपादक राकेश शर्मा को आचार्य विद्यानिवास मिश्र पत्रकारिता सम्मान 2025 से अलंकृत करने का लेकिन मुख्य वक्ता-ललित निबंध लेखक नर्मदा प्रसाद श्रीवास्तव ने विद्यानिवास जी से पारिवारिक रिश्तों और उनके लेखन को जिस धाराप्रवाह अंदाज में याद किया पूरा सभागृह सम्मोहित सा सुनता रहा। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे (सम्राट) विक्रम विवि के पूर्व कुलपति प्रो. बालकृष्ण शर्मा ने तो अपने संबोधन में कहा भी नर्मदा प्रसाद जी को सुनते हुए ऐसा लगता रहा जैसे विद्यानिवास मिश्र का अवतरण हो गया है। 

मध्य भारत हिंदी साहित्य समिति, विद्या श्री न्यास और इंदौर प्रेस क्लब के संयुक्त तत्वावधान में समिति के सभागृह में आयोजित इस कार्यक्रम में विद्यानिवास मिश्र के ललित निबंधों वाली उपाध्याय की पुस्तक का लोकार्पण भी किया गया   मुख्य वक्ता नर्मदा प्रसाद उपाध्याय ने पंडित विद्यानिवास मिश्र : कृतित्व के बहुआयाम विषय पर बोलते हुए कहा नव भारत टाईम्स के प्रधान संपादक रहते हुए भी मिश्र जी ने साहित्य को नये आयाम दिए। वे बहुआयामी व्यक्तित्व रहे। लगभग डेढ़ दशक से अधिक उनका स्नेह मिला, फिर तो वे हमारे परिवार के मुखिया हो गए। ललित निबंध के मूल में कला है और इसी भारतीय कला ने उन्हें ललित निबंधकार के रूप में स्थापित किया। ये ललित निबंध परंपरा फ्रांस से 17 वीं शताब्दी में भारत में आई । वो कहते थे... मानव रचित सौंदर्य ललित है। मनुष्यता के परिष्कार की बात करें, वह लालित्य है। पंडित जी अपने लिखे को ललित निबंध नहीं व्यक्ति व्यंजना कहते थे। 21 खंडों में रचनावली प्रकाशित हुई। मेरे राम का मुकुट भीग रहा है निबंध में वो लिखते हैं सीता के निर्वासन के पश्चात राम का मुकुट भारी होता जाता है, उनकी व्यथा बढ़ती है लेकिन सीता का सिंदूर उतना ही दमकता जाता है। कौशल्या की चिंता में वो मातृ शक्ति का आह्वान करते हैं। कृष्ण की पूजा चोरी के फूलों से करते हुए कहते हैं... जो चोर है उसकी पूजा भी चोरी के फूलों से की जानी चाहिए। राम संसार के एकमात्र ऐसे नायक है जो धनुर्धर भी हैं और संन्यासी भी हैं। मिश्र जी ने गीत गोविंद की आध्यात्मिक व्याख्या की। राधा को परम आराध्य की शक्ति कहते हैं। कृष्ण की गति राधा है। कृष्ण का कोई व्यक्तित्व राधा के बिना नहीं हो सकता। मालवा में ही गीत गोविंद यहीं लिखा गया। मैंने ओंकारेश्वर में उन्हें यह बात बताई और अनुरोध किया कि गीत गोविंद की व्याख्या करना चाहिए। उन्होंने नर्मदा में संकल्प लिया। हम घर लौटे, वो गीत गोविंद की व्याख्या बोलते जाते थे मैं और पत्नी टेप करते थे। वो कालिदास को निसर्ग और माधुर्य का कवि और उनकी भाषा को चित्रांकन कहते थे। कालिदास के मेघदूत को लेकर समझाते थे... मेघ सुंदर है यह तब ज्ञात होगा जब उसके विरह में दुबली होती नदी को देखोगे। कालिदास को तप के कवि कहते हैं वो सीता, इंदुमती, पार्वती सब के तप की बात कहते हैं। 

कालीदास कश्मीर के थे, मालवा के थे, वो उज्जैन में जन्मे ना हो लेकिन उनका ससुराल जरूर उज्जैन रहा होगा। महाकाल के प्रांगण में यह  ठिठोली दामाद ही कर सकता है। उज्जैन को वो वक्रपंथा कहते थे टेड़ी रेखा से ही सुंदर चित्र बनता है। रामायण, महाभारत, कालिदास, गीत गोविंद को लेकर उन्होंने खूब काम किया। 

वो कहा करते थे भारतीय कला का उद्देश्य नवीन बनाना नहीं, नवीन बने रहना है। समय के हिसाब से भारतीय कला को नवीन बनाए रखो। भारतीय कला की विशेषताओं को लेकर विस्तार से बात की है। वो कहते थे भारतीय कला का उद्देश्य पूर्णता और समग्रता देखना है। हमारे यहां तो समग्रता में ही ईश्वर की पहचान बनती है। राम की पहचान धनुष बिना नहीं, बंसी बिना कृष्ण की पहचान नहीं। हरक्यूलिस की प्रतिमा मसल्स वाली होगी। सब को साथ लेकर चले वहीं साहित्य-कला है। भारतीय कला देह के बलिष्ठ होने पर नहीं सुंदर होने पर बल देती है। उन्होंने खजुराहो के शिल्प के दर्शन समझाए, बताए कि यह काम शिल्प नहीं है। सरोवर में हंस हंसनी तैर रहे हो और उसमें कमल नहीं हो तो वह तालाब शोभा नहीं पाता। यही दृष्टि भारतीय कला, सौंदर्य की दृष्टि है। 

🔹 पंडित जी कहीं गए नहीं, ठहर गए होंगे

पं विद्यानिवास मिश्र जी के निधन पर हम दुखी हुए, फिर लगा कि वह स्मृति में रूपांतरित हो रहे हैं, शब्दों में लौट रहे हैं। मोह तो मरने के बाद भी स्मृति देह, शब्द देह के रूप में रूपांतरित होकर लौटती है। उनका दर्शन था, मौलिक अवधारणा थी। पंडित जी गए नहीं, कहीं ठहर गए होंगे। मुझे लगता है रास्ते में कहीं पाणिनी, भवभूति, कालीदास न मिल गए हों। कही कालीदास से शकुंतला के वर्णन को तो नहीं पूछ रहे हों। कहीं पार्वती से वन शोभा की बात ना कर रहे हों। कही राहुल सांस्कृत्यान न मिल गए हों। कहीं नागार्जुन, अज्ञेय, बालकृष्ण शर्मा “नवीन” ना मिल गए हों। मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं कि इन सब से चर्चा के बाद मेरे पास भी आएंगे। वो आगे चलते रहे, इतिहास पीछे पीछे चलता रहा। 

🔹 मिश्र जी भ्रमरानंद के छद्म नाम से लिखते थे  

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे (सम्राट) विक्रम विवि के पूर्व कुलगुरु बालकृष्ण शर्मा ने कहा जो हमारा आदर्श होता है तो विधाता की सृष्टि से परे कवि की कल्पना रहती है। सौ लोगों में कोई एक शूरवीर होता है, लाखों में कोई एक वक्ता होता है। वक्ता या कवि वो कौन सा तत्व होता है. जो उसे विलक्षण बना देता है। नीलकंठ ने लिखा है.... कवि उन्हीं शब्दों, अर्थों को विशिष्ठ विन्यास का क्रम देकर उसे काव्य बना देता है । यही हमने उपाध्याय जी से विद्यानिवास मिश्र के संबंध में सुनते हुए मिला है। 

     आचार्य आनंदवर्धन ने एक विशेषण के माध्यम से काव्य को कहा काव्य का प्राण शब्दों का ललित और औचित्य होता है। मिश्र जी भ्रमरानंद के छद्म नाम से भी लिखते थे। कालिदास दुष्यंत-शकुंतला के मिलन में भ्रमर का बिम्ब पकड़ते हैं। वो दुष्यंत को भी रस लोलुप भ्रमर कहते हैं। मिश्र जी का खुद को भ्रमर कहना उनकी सूक्ष्म चेतना को प्रदर्शित करता है। वे लोक और शास्त्र में भ्रामरी वृति से चलते हैं। 

सम्मानित हुए राकेश शर्मा ने कहा मेरे लिये ये महत्वपूर्ण क्षण है। जीवन में ऐसे क्षण बहुत कम आते हैं। विद्या श्री न्यास ने मुझे सम्मान के लिये चुना उनका आभार। मिश्र जी भारतीय संस्कृति के ध्वजवाहक थे। उसी सांस्कृतिक विरासत को नर्मदा प्रसाद जी आगे बढ़ा रहे हैं। पुरस्कार-सम्मान उत्साह के साथ जिम्मेदारी भी देते हैं। 

प्रारंभ में स्वागत भाषण समिति के कार्यवाहक प्रधानमंत्री घनश्याम व्यास ने दिया। प्रेस क्लब अध्यक्ष अरविंद तिवारी ने भी संबोधित किया । सुमित्रा महाजन के संदेश का वाचन वसुधा ताई ने किया। अतिथि और वक्ताओं का परिचय अखिलेश राव, सुनील कुमार और हरेराम वाजपेयी ने दिया। संचालन कवि मुकेश तिवारी ने किया। आभार उमेश पारीख ने माना।

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श्री कीर्ति राणा, इंदौर