जाति से बड़ी जात... .... संस्कृति के चार अध्याय से .... . लेखक रामधारीसिंह दिनकर
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की बहुचर्चित पुस्तक “संस्कृति के चार अध्याय” का प्रथम संस्करण मार्च 1956 में प्रकाशित हुआ था। इस पुस्तक का लोकार्पण राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद जी ने किया था। प्रस्तावना भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लिखी थी।
दिनकर जी ने जातियों में बंटे भारत की दुर्दुशा की व्याख्या ‘जाति से बड़ी जात” में की है। लोक भारती प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक “संस्कृति के चार अध्याय” में पृष्ठ संख्या 264 पर “जाति से बड़ी जात” शीर्षक के तहत लिखे वाक्यों को यथारूप प्रस्तुत किया जा रहा है। भारत में कुछ महीनों से जातीय जनगणना की बात जोर-शोर से उठाई जा रही है। इस संदर्भ में यह लेख पढ़ा जाना आवश्यक है।
प्रसंगवश........
जाति से बड़ी जात
- रामधारी सिंह दिनकर
यदि भारत में मुसलमानी अत्याचार भयानक रहा, तो तत्कालीन राजपूती वीरता की कहानी भी कुछ कम लोमहर्षक नहीं है। कम से कम राजपूतों के प्रसंग में तो यह कहा ही जा सकता है कि वे तुर्कों की तलवार को कुछ नहीं समझते थे। और सच भी यही है कि मुसलमान तलवार के जोर से नहीं बढ़े, भारतवासियों ने उनका सामना ही नहीं किया। इस प्रकार इस्लाम भारत में केवल खड्ग बल से नहीं फैला। हिंदू समाज में वेद विरोधी आंदोलन इस्लाम के उदय से कम से कम 1000 वर्ष पहले ही छिड़ चुका था और बहुत से लोग वेद, ब्राह्मण, प्रतिमा और व्रत अनुष्ठानों में विश्वास खो चुके थे। धर्म परिवर्तन के अधिक आसान शिकार यही लोग हुए। इस्लाम ने बहुत से लोगों को भी अपने वृत्त में खींच लिया जो अछूत होने के कारण अपमानित हो रहे थे। और बहुत से लोग इसलिए भी मुसलमान हो गए क्योंकि प्रायश्चित के नियम हिंदुओं के यहां थे ही नहीं। हिंदुत्व छुई-मुई सा नाजुक धर्म बन गया था। इसलिए, गांव के कुएं में अगर मुसलमान पानी डाल देते तो सारा गांव स्वत: मुसलमान हो जाता और शास्त्रों के प्रहरियों को भी यह सूझता ही नहीं कि पानी के समान मनुष्य भी शुद्ध किया जा सकता है। आक्रमण के रास्ते में गाय पड़ जाती तो हिंदुओं की स्वत: पराजय हो जाती थी। फौज की जद में अगर मंदिर पड़ जाते तो हिंदुओं को कंपकंपी छूटने लगती थी।
जात-पात तोड़क मंडल के कार्याध्यक्ष श्री संत राम ने लिखा है कि मौलाना मुहम्मद काजिम मुरादाबादी के इतिहास में इस बात का उल्लेख है कि 13वीं सदी में रतनजू नामक एक व्यक्ति जो शायद हूण या शक खानदान का था, कश्मीर के राजा सहदेव की राजसभा में किसी ऊंचे पद पर काम करता था। हिंदू धर्म पर उसकी असीम श्रद्धा थी और वह हिंदू होना चाहता था। किंतु, पंडितों ने उसे किसी भी प्रकार हिंदू बनने नहीं दिया, क्योंकि यह बात ही अकल्पनीय थी। निदान, वह मुसलमान हो गया और उसके मरने के बाद उसका बेटा शाह मीर सहदेव को मार स्वयं राजा बन बैठा। जिन ब्राह्मणों ने रतनजू को हिंदू बनने नहीं दिया था, उन सब को शाह मीर ने बोरों में बंद करवा के झेलम में डाल दिया। श्रीनगर में जहां ये लोग डुबोए गए थे, वह स्थान आज भी “वट मजार” के नाम से प्रसिद्ध है।
बंगाल में जिस “काला पहाड़” नामक प्रतापी मुसलमान ने असंख्य बंगाली हिंदुओं को मुसलमान बनाया, वह स्वयं पहले हिंदू था एवं ब्राह्मणों के अत्याचारों से बहुत उबकर ही वह मुसलमान हुआ था और मुसलमान होने के बाद उसने वही किया जो स्वाभिमानी पुरुष को करना चाहिए।
धार्मिक विश्वासों की विकृति के साथ हिंदुओं की दूसरी कमजोरी उनका जात-पांत में बंआ रहना था। विपत्ति में यदि वैश्य है तो राजपूत उसकी मदद नहीं करेंगे और विपत्ति में यदि एक गोत्र का ब्राह्मण है तो दूसरे गोत्र वाला ब्राह्मण अलग खड़ा रहेगा। यह स्वभाव हिंदुओं का पहले भी था और कहीं-कहीं आज भी है। हिंदू जनता के यह आपसी द्वेष ऐसे प्रौढ़ हैं कि उनकी कहावतें बनी हुई हैं। ये कहावतें हैं... जिसका बनिया यार, उसे दुश्मन क्या दरकार? खत्री पुत्रम कभी न मित्रम, जब मित्रम तब दगी दगा। पीतांबर छाजो भलो, साबत भलो ना ठाट, और जात शत्रु भलो, मित्र भला नहीं जाट।। ये कहावतें विनोद या मनबहलाव की चीज नहीं है बल्कि यहां उनके अनुसार आचरण करने का रिवाज भी मौजूद है। जिस देश में मनुष्य, मनुष्य नहीं होकर ब्राह्मण, राजपूत, कायस्थ, कुरमी या कहार समझा जाता हो, जिस देश के लोग अपनी भक्ति और प्रेम पर पहला अधिकार अपनी जात वालों का समझते हों और जिस देश की एक जात के लोग दूसरी जात के विद्वान को मूर्ख, दानी को कृपण, बली को दुर्बल, सच्चरित्र को दुश्चरित्र और अपनी जात के मूर्ख को विद्वान और पापी को पुण्यात्मा समझते हो, उसे देश की स्वतंत्रता और समृद्धि के विषय में यही कहा जा सकता है कि “रहिबे को आजरज है, गयी तो अचरज कौन?”
शास्त्रों का अत्याचार केवल इतना ही नहीं था कि उन्होंने खाने-पीने, चलने-फिरने, मिलने-जुलने और आने-जाने पर इतनी अधिक प्रतिबंध लगा दिए थे कि उनके अनुसार आदमी की जात, बात की बात में चली जाती थी। उनका इससे बड़ा अत्याचार कदाचित यह था कि जाति भ्रष्ट व्यक्ति को फिर से जाति में मिलाने का उन्होंने कोई उपाय नहीं निकला था। मनु और याज्ञवल्क्य स्मृतियों में जाति भ्रष्ट मनुष्य को जाति में लाने का कोई प्रबंध नहीं था। यह प्रबंध पहले-पहल देवल स्मृति में किया गया, जिसमें केवल 96 श्लोक हैं और जो, शायद दसवीं शती में लिखी गई थी। अनुमान यह है कि सिंध प्रदेश में मुसलमानों के हाथ में चले जाने के बाद जब पश्चिमोत्तर भारत की जनता धड़ल्ले से मुसलमान बनायी जाने लगी, तब उसे समाज में वापस आने की सहूलियत देने के लिए यह स्मृति आनन - फानन में रच दी गई। किंतु इस स्मृति का महमूद गजनवी के समय व्यापक प्रचार नहीं हुआ था और उस समय भी, सामान्यतः हिंदू यही मानते थे कि जिसके शरीर पर मुसलमान के छुए हुए पानी का छींटा पड़ गया, वह किसी भी प्रकार से हिंदू नहीं रह सकता है। अलबैरूनी के विवरण से भी यही निष्कर्ष निकलता है कि उसे समय पतित मनुष्य को जात में फिर से मिलाने का रिवाज हिंदुओं के यहां नहीं था। शाही वंश का वीर राजा जयपाल जब महमूद गजनवी के हाथों कैद हुआ तो कैद से निकलने के बाद उसने समाज में वापस आना अनुचित समझा और प्रायश्चित स्वरूप वह आग में जलकर मर गया। एक प्रायश्चित की प्रथा में प्रचलित न रहने से हिंदुओं को कितनी हानि हुई, इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है।
ब्राह्मण बौद्ध विद्वेष
ब्राह्मण और बौद्धों के बीच सांप और नेवले का संबंध हो गया था। ब्राह्मणों ने कहावत चला दी थी कि जो व्यक्ति मरते हुए बौद्ध के मुख में पानी देता है, वह नरक में पड़ता है। अंग, बंग, कलिंग, सौराष्ट्र और मगध में जैन और बौद्ध कुछ अधिक थे, अतएव, ब्राह्मणों ने इन प्रांतों में जाने की धार्मिक तौर पर मनाही कर दी थी।
यह भी कहा जाता है कि बौद्धों के खिलाफ मुसलमान को ब्राह्मण भड़काया करते थे और ब्राह्मणों के खिलाफ बौद्ध। बौद्ध चाहते थे कि मुसलमान ब्राह्मणों को नष्ट कर दें तो अच्छा हो। ब्राह्मण चाहते थे कि इस बहाने अगर बौद्ध ही समाप्त हो जाएं तो हमारी नाक बचे। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि बिहार पर बख्तियार खिलजी द्वारा आक्रमण करने के पीछे नालंदा के कुछ बौद्धों का षड्यंत्र था। बंगाल के पाल राजे बौद्ध, किंतु सेन राजे हिंदू थे। सेन-वंशी राजे बौद्ध धर्म के प्रचंड शत्रु हुए, यह मानी हुई बात है। नालंदा सेन राजाओं के अधीन था। सेन राजाओं का कर्तव्य था कि नालंदा की रक्षा के लिए कुछ उपाय करते किंतु नालंदा का विहार जलकर खाक हो गया और सेन राजे दूर पर अपने महल में सोते रहे। कुछ ऐसा ही बर्ताव बौद्ध श्रमणों ने सिन्ध में किया था जब वहां दाहिर के साथ मुहम्मद बिन कासिम की लड़ाई चल रही थी। श्री जयचंद्रजी ने लिखा है दाहिर के एक भाई ने दुश्मन का सख्त मुकाबला किया परंतु जनता का एक बड़ा अंश श्रमण था। वे तमासबीन बने रहे। श्रमण और ब्राह्मण एक दूसरे को कटवाने के फेर में थे किंतु मुसलमानी तलवार दोनों की गरदानों पर गिरी, बल्कि श्रमणों पर तो इतनी जोर से गिरी कि उनका सफाया ही हो गया।
इस प्रकार हिंदुओं ने जात-पांत और धर्म की रक्षा की कोशिश में जाति और देश को बर्बाद कर दिया। भारतवर्ष में राष्ट्रीयता की अनुभूति में जो अनेक बाधाएं थी, उनमें सर्वप्रमुख बाधा यही जातिवाद था। जिस गौरव की अनुभूति के लिए मनुष्य राष्ट्रीयता का वरण करता है, उसे गौरव की तृषा इस देश में जात-पांत की अनुभूति से ही शमित हो जाती थी। जात अगर ठीक है तो सब कुछ ठीक है। धर्म अगर बचता है तो सब कुछ बचता है। इस भावना के फेर में हिंदू इस तरह पड़े कि देश तो उनका गया ही, जात और धर्म की भी केवल ठठरी ही उनके पास रही। हिंदुओं की इस स्थिति पर क्षोभ और करुणा से विचलित होकर विल डुराण्ट लिखते हैं कि “जात-पांत के भेद-भावों से दुर्बल हो जाने के कारण ही हिंदू जाति आक्रामकों के सामने विवश होती गयी। आक्रामकों के प्रहार सहते-सहते उसकी अवरोध की शक्ति का दिवाला निकल गया और जब आत्मरक्षा का कोई उपाय नहीं रहा तब हिंदू लोग अलौकिक बातों में अपना त्राण खोजने लगे। अपने आप को बदलने अथवा दिलासा देने के लिए उन्होंने इस दलील का आश्रय लिया कि स्वाधीनता हो या पराधीनता, दोनों ही माया की वस्तुएं हैं। जीवन क्षणभंगुर है। अतएव, व्यक्ति या समाज की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करना, कदाचित ही आवश्यक कार्य हो। हिंदू जाति के क्लेशपूर्ण, भीषण इतिहास से जो शिक्षा निकलती है, वह यह है कि निरंतर सावधानता बरते बिना सभ्यता की रक्षा नहीं की जा सकती। जातियों में शांति के लिए प्रेम होना ठीक है, किंतु उन्हें अपनी बारूद को गीला नहीं होने देना चाहिए। ( साभार- संस्कृति के चार अध्याय.. लेखक रामधारीसिंह दिनकर )