मध्यावधि चुनाव के लिये तैयार रहे देश !

 

 04 जून को 18 वीं लोकसभा के चुनाव की मतगणना हुई है और सरकार के गठन की प्रक्रिया अभी शुरू नहीं हुई. आज 05 जून को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठंबंधन के घटक दलों की बैठक सम्पन्न हुई जिसमें नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार द्वारा चलाये गये कल्याणकारी कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने का प्रस्ताव पारित किया गया. सम्भवत: नरेंद्र मोदी अगले दो-तीन दिनों में शपथ ले सकते हैं. जितने जल्दी हो सके सभी दल चाहते हैं कि सरकार का गठन हो ताकि राजनीति के बाजार में अफवाहों पर विराम लग सके. अभी सरकार का गठन भी नहीं हुआ है, ऐसे में मध्यावधि चुनाव की बात करना बेमानी है. लेकिन पूर्ण बहुमत की सरकार का पूरी दबंगता के साथ नेतृत्व करने के बाद गठबंधन की सरकार में सहयोगी दलों के हस्तक्षेप की सम्भावना के मद्देनजर यह सवाल जेहन में आया कि “क्या भविष्य में यानि दो- तीन सालों के भीतर मध्यावधि चुनाव की नौबत आ सकती है ? काश ऐसा न हो लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि नीतिश कुमार और चंद्राबाबू नायडू बीच में गठबंधन से तौबा न कर लें. इस सम्भावना को इस बात से बल मिलेगा क्योंकि भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा से दोनो बड़े सहयोगी दल टी.डी.पी. और जे.डी.(यू) एकदम अलग है. ऐसे में भारतीय जनता पार्टी को अपने घोषणा पत्र को अलग रखना पड़ेगा.  

प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में शीघ्र ही नई सरकार के गठन की सम्भावना है. वैसे चुनाव परिणाम आने के साथ ही इंडी गठबंधन ने भी नीतिश कुमार और चंद्राबाबू नायडू पर पांसे फेंकना शुरू कर दिया है लेकिन इतने जल्दी वे दोनो शायद राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एन.डी.ए.) से नाता नहीं तोड़ेंगे. सरकार के गठन के बाद सबसे ज्यादा माथापच्ची मंत्रालय के आवंटन को लेकर आ सकती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कार्य शैली को देखते हुये वे सहजता से सहयोगी दलों के साथ आसानी से तालमेल बिठाने में क्या उदारता दिखा सकेंगे ? तेलुगुदेशम पार्टी और जनता दल युनाईटेड के सांसद मंत्रीमंडल में अवश्य शामिल होंगे. इसके पहले 2019 में जेडूयू के कोई भी सांसद मंत्रीमंडल में शामिल नहीं हुये थे . लेकिन इस बार पूरी पूरी सम्भावना है कि वे शामिल होंगे. मंत्रालयों के आवंटन के बाद स्वतंत्र रूप से काम करने और फैसले लेने में कभी न कभी मनमुटाव जरूर होगा जो गठबंधन से अलग होने का कारण बनेगा. गठबंधन की सरकार को सफलतापूर्वक चलाने के लिये पूर्व प्रधानमंत्री स्व. अटलबिहारी वाजपेयी का उदाहरण सामने रखकर विशेषकर इन दोनो दलों की अपेक्षा रहेगी कि मोदी भी उसी तरह का बर्ताव करे. ये दोनो दल भी प्रधानमंत्री स्व. अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार में भी शामिल थे और पूरे कार्यकाल तक बने रहे. ये भी हो सकता है कि सांसदों की संख्या के आधार पर मंत्रियों की संख्या से अधिक कोटा की मांग सहयोगी दल करने लग जायें जिससे पूरा करने में सहज न हो. इसके अलावा प्रधानमंत्री कार्यालय का दखल भी सहयोगी दलों के मंत्री सहजता से स्वीकार नहीं करेंगे. सहयोगी दलों की बैसाखी से चलने वाली सरकार उतनी मजबूती और दृढ़ता से काम नहीं कर पायेगी जितना वह अपने बलबूते पर पूर्ण बहुमत के साथ काम करती रही है. कई बार तो ऐसा लगता था कि सभी निर्णय प्रधानमंत्री कार्यालय से ही लिये जाते हैं. अब ऐसा नहीं होगा क्योंकि सरकार चलाने के लिये समझोते की मजबूरी की तलवार हमेशा लटकी रहेगी. यदि सहयोगी दलों के मंत्रियों पर दबाव बनाने की कोशिश की जाती है तो वे दल गठबंधन से तुरंत अलग होने में जरा सी भी देर नहीं लगायेंगे. क्योंकि भारतीय जनता पार्टी के पास बहुमत के लिये अपने सांसदों की संख्या काफी कम है भले ही सबसे ज्यादा सांसद भाजपा के ही हैं लेकिन ये दल सदैव दबाव बनाने की कोशिश करते रहेंगे.      

अब यह नरेंद्र मोदी के ऊपर पूरी तरह निर्भर है कि वे जितना जल्दी हो सके, नयी परिस्थिति में नये सहयोगियों के साथ बेहतर तालमेल बिठाते हुये सरकार का संचालन करे. यदि वे ऐसा करने में सफल हो जाते हैं तो देश के लिये शुभ होगा अन्यथा बहुत जल्द ही मध्यावधि चुनाव की आहट सुनाई देने लगेगी. (मधुकर पवार)