खाद्य तेलों से बिगड़ रही है देश की सेहत और अर्थव्यवस्था 

                                                                                                                                                                                                                                                                                            के. के. झा

     भारत की रसोई में खाद्य तेल एक जरूरी पदार्थ है, लेकिन आज यह हमारे स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्थादोनों के लिए खतरा बन चुका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा नागरिकों से की गई यह अपील कि हर व्यक्ति अपनी खाद्य तेल खपत में 10% की कटौती करे”—सराहनीय, दूरदर्शी और समय की मांग है। आज भारत के सामने दोहरी चुनौती है: एक ओर कुपोषण और भूख, तो दूसरी ओर अतिपोषण यानी मोटापा और उससे जुड़ी बीमारियां। एक तरफ देश ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 127 देशों में 105वें स्थान पर है, तो दूसरी तरफ 13.5 करोड़ लोग मोटापे से ग्रस्त हैं। अनुमान है कि 2050 तक यह संख्या 44 करोड़ तक पहुंच सकती है। इस खतरे की एक बड़ी वजह अत्यधिक तेल का सेवन भी है।

खपत का गणित और स्वास्थ्य की हानि

    भारत में 1992 में प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष तेल खपत 9.6 किलोग्राम थी, जो 2022-23 में बढ़कर 19.5 किलोग्राम हो गई है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) के अनुसार प्रति व्यक्ति वार्षिक खपत 12–13 किलोग्राम से अधिक नहीं होनी चाहिए। यह अतिरिक्त खपत न केवल हृदय रोग, डायबिटीज़ और मोटापे को बढ़ावा देती है, बल्कि देश को खाद्य तेलों के भारी आयात की ओर भी धकेलती है।

आयात की निर्भरता और विदेशी मुद्रा पर भार

    भारत खाद्य तेलों का विश्व में सबसे बड़ा आयातक देश है। वर्ष 2022-23 में 164.7 लाख टन तेल आयात किया गया, जिस पर 1.57 लाख करोड़ रुपये (19.8 अरब डॉलर) खर्च हुए। देश की कुल खपत का 57%  खाद्य तेल आयात से पूरा होता है, जिसमें 59% हिस्सा सिर्फ पाम ऑयल का है। यह वही तेल है जो सबसे सस्ता होता है लेकिन स्वास्थ्य के लिहाज से सबसे खतरनाक भी, क्योंकि इसमें संतृप्त वसा की मात्रा अधिक होती है। यही तेल ज़्यादातर स्नैक्स, मिठाइयों, बेकरी और स्ट्रीट फूड में इस्तेमाल होता है।

घरेलू उत्पादन और आत्मनिर्भरता की राह

    खाद्य तेलों की मांग और आपूर्ति कई अंतर के संकट का समाधान केवल खपत कम करना ही नहीं, बल्कि घरेलू उत्पादन बढ़ाना भी है। सन 2022-23 में देश में 114 लाख टन खाद्य तेल का उत्पादन हुआ। सरकार का लक्ष्य है कि 2030 तक यह 203 लाख टन तक पहुंच जाए। यदि हम खपत में केवल 10% की कटौती करें और घरेलू उत्पादन बढ़ाएं, तो आयात में लगभग 63% की कमी संभव है। इससे ना केवल विदेशी मुद्रा की बचत होगी, बल्कि किसानों को तिलहन  फसलों के बेहतर दाम भी मिलेंगे।

किसानों के लिए अवसर, उपभोक्ताओं के लिए जागरूकता

   भारत में सोयाबीन, सूरजमुखी, मूंगफली और सरसों जैसे पारंपरिक तेलों को फिर से प्राथमिकता देनी होगी। इनमें पाम ऑयल की तुलना में असंतृप्त वसा होती है, जो स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है। यदि आयात घटेगा, तो देश के किसानों को अधिक मांग और बेहतर मूल्य मिलेगा। साथ ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था को नई ताकत मिलेगी।

 जन आंदोलन बनाएं "तेल बचाओ" अभियान

    खाद्य तेल की खपत घटाना केवल व्यक्तिगत सेहत का मामला नहीं है, यह अब राष्ट्रीय जिम्मेदारी बन चुका है। जैसे भारत ने स्वच्छ भारत, उज्ज्वला योजना और कोविड टीकाकरण अभियानों में सामूहिक चेतना दिखाई, वैसे ही तेल बचत को भी जन आंदोलन बनाना होगा। सरकार को नीति निर्माण, मीडिया को जन-जागरूकता, उद्योग को हेल्दी विकल्पों की ओर और नागरिकों को जिम्मेदार उपभोक्ता की भूमिका निभानी होगी। स्वास्थ्य के लिए, किसानों के लिए, अर्थव्यवस्था के लिएतेल की खपत घटाएं।

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श्री के.के. झा  इंदौर के वरिष्ठ पत्रकार एवं कमोडिटी विशेषज्ञ हैं