आलेख... 

युवा पीढ़ी और सामाजिक समरसता

 

  • अरविन्द पाठक                                                    

       संस्कृति, संस्कार, सहयोग, सह-अस्तित्व की भावना और सामंजस्यता के साथ समाज में सकारात्मक परिवर्तन से ही अपेक्षित सफलता का मार्ग प्रशस्त होता है। सुविधाभोगी संस्कृति से सामाजिक विकृतियां पनप रही हैं। परंपराओं को तकनीकी विकास से जोड़ दिया गया है। प्रतिफल स्वरूप अनेकानेक कमियाँ यथा ... लघु परिवार, संबंधों में तनाव, नींद में कमी, गंजापन, कम वस्त्र, घर के भोजन की बजाए देर रात तक होटलों में भोजन करना, वाचनालय की जगह व्हाटसएप, प्रातः - सांयकालीन पैदल भ्रमण की बजाए तंबाखू-गुटखा, बीड़ी-सिगरेट, भांग-गांजा, अफीम-चरस, मद्यपान आदि का सूर्योदय से देर रात तक सेवन, बेतहाशा गति और बेतरतीब तरीकों से दो-चार पहिये वाहनों का परिचालन प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया है।

       अतिथि देवो भव के स्थान पर अतिथि तुम कब जाओगे” की संस्कृति पनप रही है।  समर्पण, सम्मान, सभ्यता से परे होकर विशेषकर युवाओं की सहनशक्ति कम हो रही है। सरल-सहज जीवन, श्रद्धा-विश्वास पर अधीरता हावी हो चली है। सच बोला जाए अथवा कहा जाये तो इस आडंबरपूर्ण आचरण और ढकोसलों के लिये वैश्विक वातावरण के साथ-साथ हम सब उत्तरदायी हैं।

       जन्म के समय से संतान को जैसा वातावरण मिलता है और जो संस्कार, शिक्षा-दीक्षा हम देते हैं, उसी का परिणाम हमें भोगना पड़ता है।  ज्ञान-परंपरा की सभ्यता का पुरोधा "भारतवर्ष", वैश्वीकरण व्यवस्था के बहाव में कृत्रिम ज्ञान (ARTIFICIAL INTELLIGENCE) का पक्षधर बन गया है। अपनी-अपनी संस्कृति, संस्कार, धर्म, समाज आदि के प्रति अपेक्षित आस्था न रखने अथवा उनके प्रति दुराव रखने और पाश्चात्य संस्कृति को आवश्यकता से अधिक अपनाने, सुविधाभोगी समाज के अनुकरण से विकास भी जगह विनाश की परिस्थितियां उत्पन्न होती जा रही हैं।

    आंग्ल भाषा के माध्यम से ही अध्ययन-अध्यापन, जन्म दिन- विवाह तिथि आदि शुभ प्रसंगों पर बर्थ डे, मैरिज एनिवर्सरी, माता-पिता को ममी-डैड संबोधन, आंग्ल संस्कृति को ही श्रेष्ठ समझना आदि गुलामियत की पराकाष्ठा का प्रतीक है। संतान बुजुर्गो की भावनाओं को समझने और सम्मान देने की बजाए, स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मानकर, उनसे जुबान लड़ाती है। मंदिर जाने की जगह, केक कटवाने, मंत्र, आरती, हवन, पूजा-पाठ, प्रणाम-आर्शीवाद, आदर-सत्कार के संस्कार देने के बदले, केवल 'फर्राटेदार अंग्रेजी' बोलने को ही, अपनी 'शान' समझने, सफलता मिलने पर घर में परिवार के साथ खुशियाँ बांटने की बजाए होटल में पार्टी करने की प्रथा को बढ़ावा देने, विवाहोपरांत 'देव दर्शन' के बजाए मधुयामिनी (हनीमून) के लिये विदेश स्थलों पर भिजवाने आदि आंग्ल संस्कृति की अनगिनत प्रथाओं को जाने-अनजाने में ही 'स्वीकार' कर लिया गया है।             प्राचीनतम समृद्ध संस्कृति, नैतिक मूल्यों, मानवीय संवेदनाओं का त्याग, अन्य सभ्यताओं की जीवनशैली अपनाना, आधुनिकता का लिबास ओढ़ना,  अवैध संबंध, बिखरते परिवार, व्यसनयुक्त तन, थका-हारा मन, अभद्र वार्तालाप, अनुशासनहीन संतानों का आडंबर व छल-कपट से परिपूर्ण आचरण, असुरक्षित समाज, भयावह भविष्य आदि सर्वत्र दिखाई दे रहा है।

        कटु  व यथार्थ सत्य है कि गुनाह करने वाले को एक न एक दिन, परलोक नहीं, इसी लोक में दंड मिलता है। चिंतन, मनन, विश्लेषण, लक्ष्य निर्धारण, कार्यान्वयन आदि सुनियोजित प्रक्रिया से ही अपेक्षित सफलता मिलती है। परिवर्तन की पुरवैया से सकारात्मक परिणाम आने लगे हैं और भविष्य भी उज्जवल है।  सामाजिक समरसता और सद्भाव से बड़ी से बड़ी समस्याओं का समाधान सादगीपूर्ण व्यक्तित्व और सहज भाव रख कर ही संभव है और अपनी-अपनी संस्कृति व संस्कारों के संरक्षण से ही स्वयं के साथ-साथ समस्त धर्मों, समाजों तथा संपूर्ण ब्रम्हांड का कल्याण होगा।

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श्री अरविन्द पाठक, बैंक आफ इंडिया के इंदौर आंचलिक कार्यालाय में जिला अग्रणी प्रबंधक के अलावा भोपाल और अन्य स्थानों पर सेवाएं प्रदान की हैं। सेवानिवृत्ति के पश्चात भोपाल में निवासरत हैं। सामाजिक और सामयिक विषयों पर चिंतन व लेखन भी कर रहे हैं।