आज 11 सितम्बर को संत विनोबा भावे का जन्म दिन है। इस अवसर पर प्रस्तुत है... गांधीवादी चिंतक अभिभाषक श्री अनिल त्रिवेदी का आलेख ....      

 

ज्ञान कर्म के मेलजोल से संतुलन आयेगा

 

  •  अनिल त्रिवेदी

 

  संत विनोबा भावे  कहते थे वर्तमान शिक्षा यानी पढ़ना - लिखना और कुर्सी पर बैठकर हुक्म चलाना। पढ़ना सीखने का मतलब  काम छोड़ना। पढ़े-लिखे लोगों को काम करने में शर्म मालूम होती है। यह बिल्कुल खतरनाक हालत है कि समाज में देह और बुद्धि अलग अलग हो। भगवान ने सबको हाथ और बुद्धि दोनों दी हैं। इसलिए जो विद्वान हों, वे कर्मनिष्ठ भी हों और जो कर्मनिष्ठ हों, वे विद्वान भी हों। इस तरह से ज्ञान, कर्म, पढ़ाई और परिश्रम अगर जुड़ जायेंगे तो देश की उन्नति होगी और देश एकरस होगा।

         आज हमारी समस्या यह है कि हमारे यहां ज्ञान और कर्म के बीच मेलजोल नहीं रहा। काम करनेवालों के पास ज्ञान नहीं पहुंचता और पढ़ने लिखने वाले हैं वे परिश्रम वाला काम नहीं करते हैं। इसलिए चिंतन को बुनियाद ही नहीं मिलती। ऐसा राहु  - केतु का समाज आज है। एक को केवल सिर है, उसको हाथ पांव नहीं और दूसरे को हाथ पांव हैं, परन्तु सिर नहीं। ईश्वर की ऐसी योजना होती तो वह सबको सिर और हाथ-पांव दोनों क्यों देता? कुछ लोगों को केवल सिर ही सिर और कुछ लोगों को केवल हाथ पांव ही दे सकता था। परन्तु उसकी योजना है कि सबका बौद्धिक और शारीरिक विकास दोनों हो। जैसे शब्द और अर्थ दोनों भिन्न होते हुए भी एक साथ ही रहते हैं, वैसे ज्ञान और कर्म एक साथ हो जाने चाहिए। ये दोनों कपड़े के ताने बाने जैसे हैं, दोनों से मिलकर ही जीवन का वस्त्र बनता है। परन्तु हमारे यहां तो पढ़ा लिखा मनुष्य श्रेष्ठ और परिश्रम करने वाला नीच माना जाता है। गिबन ने लिखा है कि उत्पादक परिश्रम से घृणा करने के कारण रोम की सभ्यता का ह्रास हुआ। संत विनोबा की यह बात सब आत्मसात करेगे तो सबको समस्या समाधान सहजता से सुझेगा अन्यथा देह -मन, परिवार समाज और देश यानि हम सब के अंन्तर्मन में संतुलन बनाना मु्श्किल होगा।

      मानव समाज ने आज तक जो भी हांसिल किया है, वह ज्ञान और परिश्रम के मेलजोल से ही हासिल हुआ है।,ज्ञान को हांसिल करने में जो परिश्रम लगता है वह प्रत्यक्ष ज्ञान है।,पर बिना ज्ञान के परिश्रम हाड़तोड़ मेहनत है।,जब परिश्रम या मेहनत का ज्ञान देह को हो जाता है तो ऐसी देह, ज्ञान व परिश्रम को अपनी सहज दिनचर्या का ही हिस्सा बना लेती है। जब ज्ञान और परिश्रम देह में घुल-मिल जाते हैं तो ज्ञान और परिश्रम का पूरा मेलजोल हुआ, यह अनुभव होता है। इस अनुभूति को ज्ञान से नहीं, परिश्रम से ही जानना समझना संभव हो पाता है। परिश्रम से मन और शरीर को जो प्राकृतिक आनन्द की प्राप्ति होती है, वह कल्पना से नहीं, परिश्रम से ही अनुभव कर सकते है। बिना परिश्रम की देह जल्दी हांफने और थकने लगती है। जैसे जल में निरन्तर प्रवाह रहता है जो जल को निरन्तर तरोताजा बनाए रखता है। तालाब और पोखरों के जल मे प्रवाहहीनता के कारण ताजगी हमेशा नहीं बनी रह पाती। यहीं बात कुएं के साथ भी है..... यदि कुएं से पानी निकाला ही नहीं जावे तो वह अपनी ताजगी खो बैठता है। इसी से नयी बातें सीखते सिखाते लोग आजीवन तरोताजा बने रहते हैं। कहने को तो हमारा जीवन बहुत बड़ा है पर हमें यह भी जानना समझना चाहिये जगत का ज्ञान जीवन के मुकाबले हमेशा ही अनवरत अंतहीन बना रहता है। यदि हम आखरी सांस तक भी कुछ सीखना चाहे तो सीख सकते है, फिर भी अनन्त ज्ञान बिना जाने समझे पढे अनदेखा ही रह जाता हैं और हमें चिरबिदाई लेनी होती है।आजीवन जिज्ञासु बने रहना हमारी जीवनी शक्ति को निरन्तर प्रवाहमान रखने का सरलतम उपाय हैं। इसीलिये ज्ञान और कर्म, जीवन में गतिशीलता के पर्याय जैसे ही है।

    जैसे - जैसे हमारा ज्ञान और कर्म जीवन में विस्तार पाता है, हमारा आत्मविश्वास प्रबल होता हैं। स्वामी विवेकानन्द कहते है मनुष्य - मनुष्य के बीच जो भेद है वह केवल आत्मविश्वास की उपस्थिति तथा अभाव के कारण ही है, जिसमें आत्मविश्वास नहीं है, वहीं नास्तिक है। प्राचीन धर्मों के अनुसार जो ईश्वर में विश्वास नहीं करता वह नास्तिक हैं। नूतन घर्म कहता है, जो आत्मविश्वास नहीं रखता, वहीं नास्तिक है।इस विश्वास का अर्थ है - सबके प्रति विश्वास, क्योंकि तुम सब एक ही हो। अपने प्रति प्रेम का अर्थ है सब प्राणियों से प्रेम, समस्त पशु पक्षियों से प्रेम, सब वस्तुओं से प्रेम - क्योंकि तुम सब एक हो। यही महान विश्वास जगत् को अधिक अच्छा बना सकेगा।

        जिसे हम विवेक या सदसत् विचार कहते है, उसका अपने जीवन के प्रतिक्षण में एवं प्रत्येक कार्य में उपयोग करने की क्षमता प्राप्त करने के लिए हमें सत्य की कसौटी जान लेनी चाहिए - और वह है पवित्रता तथा एकत्व का ज्ञान। जिससे एकत्व की प्राप्ति हो वही सत्य है। प्रेम सत्य है; घृणा असत्य है, क्योंकि वह अनेकत्व को जन्म देती है। घृणा ही मनुष्य को मनुष्य से पृथक करती है - अतएव वह गलत और मिथ्या है; यह एक विघटक शक्ति है; वह पृथक करती है - नाश करती है।

   स्वामी विवेकानन्द ने कहा है प्रेम जोड़ता है, प्रेम एकत्व स्थापित करता है। सभी एक हो जाते हैं  - मां संतान के साथ, सम्पूर्ण जगत् पशु-पक्षियों के साथ एकीभूत हो जाता है, क्योंकि प्रेम ही सत् है, प्रेम ही भगवान है और यह सभी कुछ उसी एक प्रेम का ही प्रस्फुटन है। प्रभेद केवल मात्रा के तारतम्य में है,किन्तु वास्तव में सभी कुछ उसी एक प्रेम की ही अभिव्यक्ति है।अतएव हम लोगों को यह देखना चाहिए कि हमारे कर्म अनेकत्व - विधायक हैं अथवा एकत्व सम्पादक। यदि वे अनेकत्व -विधायक है, तो उनका त्याग करना होगा और यदि वे एकत्व सम्पादक है, तो उन्हें सत्कर्म समझना चाहिए। इसी प्रकार विचारों के सम्बन्ध में भी सोचना चाहिए। देखना चाहिए कि उनसे विघटन या अनेकत्व उत्पन्न होता है या एकत्व, और वे एक आत्मा को दूसरी आत्मा से मिलाकर एक महान शक्ति उत्पन्न करते है या नहीं।यदि करते है,तो ऐसे विचारों को अंगीकार करना चाहिए अन्यथा उन्हें अपराध मान कर त्याग देना चाहिए।

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श्री अनिल त्रिवेदी 6 मई 1951 का इन्दौर, मध्य प्रदेश में जन्म। सन 1974 में मनोविज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि इन्दौर वि.वि.से प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान के साथ स्वर्ण पदक प्राप्त किया। 1975 में इन्दौर जिला जेल में आपातकाल में MISA के तहत नजरबंद रहते हुए। एल.एल.बी. आनर्स की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। पचास वर्षों से समाचार पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र मौलिक लेखन। माता पिता श्रीमती कलावती त्रिवेदी व श्री काशिनाथ त्रिवेदी दोनों स्वाधीनता संग्राम में जेल में रहे। गांधीवादी जीवन मूल्यों के साथ पले बढ़े किशोरावस्था से ही सामाजिक राजनैतिक आन्दोलनों में सक्रिय हैं। आदिवासी समाज के साथ एकाकार होकर प्राकृतिक जीवन को जीवन दर्शन मान कर सार्वजनिक जीवन में सतत सक्रिय हैं। उच्च न्यायालय में 1977 से अभिभाषक के रूप में जनहित तथा संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ के रूप में पहचाने जाते हैं। मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में हिन्दी में रिट याचिकाओं की शुरूआत कर पिछले ४४ वर्षो से हिन्दी में ही विचारपूर्वक अपना अभिभाषक का सारा कार्य करते रहे हैं। मध्य प्रदेश में जनहित के मामलों को प्रारम्भ करने वाले अभिभाषक के रूप में जाने जाते हैं। चालीस वर्षों से प्राकृतिक खेती करने के साथ जन्म से ही खादी के वस्त्र ही पहनते हैं। चित्रकारी विशेषकर मुक्त हस्त रेखाकंन और छायाकंन के साथ देश विदेश में भ्रमण किया है । नर्मदा बचाओ आन्दोलन, सर्वोदय-समाजवादी आन्दोलन से जुड़े हैं। गांधी, लोहिया, जयप्रकाश और विनोबा के चिन्तन से प्रभावित हो मुक्त विचार में भरोसा रखते हैं। छात्र जीवन में सम्पूर्ण क्रांति के आन्दोलन में भागीदारी के फलस्वरूप उन्नीस माह तक इन्दौर जिला जेल में MISA के तहत नजरबंद रहे। मध्य प्रदेश सरकार द्वारा लोकतंत्र सेनानी घोषित कर ताम्रपत्र प्रदान किया। कुशल वक्ता, विचारक और सादगी स्वावलम्बन और आध्यात्मिक अहिंसक जीवन के हामी अनिल त्रिवेदी का मानना है कि शब्द ही ब्रम्ह है और ब्रम्ह निशब्द है। अतः मानव का शांत भाव से अपने आप को सनातन रूप से अभिव्यक्त करना ही आत्म साक्षात्कार है। जीवन ही मनुष्य को प्रकृति का सबसे बड़ा पुरस्कार है। यह समझ ही चाहना रहित शांत एवं सृजनात्मक जीवन की आधारशिला है।

 

संपर्क-अनिल त्रिवेदी

अभिभाषक एवं स्वतंत्र लेखक

त्रिवेदी परिसर ३०४/२ भोलाराम उस्ताद मार्ग ग्राम पिपल्या राव आगरा मुम्बई राजमार्ग इन्दौर म.प्र.

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