आज अंतर्राष्ट्रीय पर्वत दिवस है। इस अवसर पर वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक श्री जयराम शुक्ल ने सांच कहे ता स्तम्भ में देश में पहाड़ों की हो रही दुर्दशा पर अपनी चिंता जाहिर की है।  यह हर भारतीय के दिल की आवाज है लेकिन इसे कितने लोग महसूस करते हैंं ? 

आदमी को पहाड़ खाते देखा है..।

* जयराम शुक्ल

 

एक बार चित्रकूट हो आइए। यहां भगवान श्रीराम साढ़े ग्यारह वर्ष रहे। जहां वे विचरते रहे होंगे, वहीं के जंगल और पहाड़ों के भीतर उम्दा किस्म का बाक्साइट है। इसलिए भगवान् राम की स्मृतियां बची रहे या चाहे जाएं चूल्हे भाड़ में। बेरहम विकास यात्रा और ग्रोथरेट के चंद्रखिलौना के लिये हमे वो जंगल और वो पहाड़ चाहिए ही चाहिए। जिस सिद्ध पहाड़ को देखकर राम ने ..भुज उठाय प्रण कीन्ह..का संकल्प लिया था, उस पहाड़ की गति देखेंगे, जरा भी संवेदना होगी तो रो पड़ेंगे।

भोपाल से इंदौर जाते हुए जब देवास बायपास से गुजरता हूँ तो कलेजा हाथ में आ जाता है। बायपास शुरू होते ही बाँए हाथ में हनुमानजी की विराट प्रतिमा है, उसके पीछे खड़े पहाड़ का जो दृश्य है,बेहद दर्दनाक है। उसे देखकर कई भाव उभरते हैं। कि जैसे चमगादड़ ने अमरूद का आधा हिस्सा खाकर फेंक दिया हो। कि जैसे जंगली कुत्तों ने जिंदा वनभैंसे के लोथड़े निकाल लिए हों। कि जैसे हमने बर्थडे की केक को चाकू से काटा हो। यदि आपमें जरा भी संवेदना होगी तो इस अधखाए पहाड़ को देखकर कुछ ऐसे ही लगेगा। दाईं ओर गुंगुआती हुई कई चिमनियां दिखेंगी। दृश्य कुछ ऐसा बनता है कि मानो धरतीमाता के मुँह में जबरन कई सुलगती हुई बीड़ियां दता दी गईं हो। 

 

यह दृश्य सिर्फ देवास का नहीं है। आप जहाँ भी रहते हों उसके दस किलोमीटर की परिधि में नजर दौड़ाइए, इससे भी वीभत्स और कारुणिक दृश्य दिखेंगे। पर इसे अंतस से महसूस करने के लिए वाल्मीकि की दृष्टि जगानी होगी, जिन्होंने क्रौंच वध की घटना में क्रौंचनी के अश्रु से उपजी करुणा के चलते सृ्ष्टि की पहली कविता रच दी। हर मनुष्य में यह दृष्टि है।.... हाँ, मैं प्रकृति प्रेमी हूँ।  मेरी मुक्ति यहीं दिखती है। जब  भी समय मिलता है तो विन्ध्य के वनप्रांतर में भटक लेता हूँ। सिंगरौली के धुंए से निकल कर उससे लगे जंगलों में खूब भटका हूँ। वाल्मीकि आज यहाँ आकर घूमते तो गश खाकर गिर पड़ते। हम भौतिकवादी खुदगर्ज आदमी हैं इसलिए ये सब कुछ देख भी लेते हैं। यहाँ आकर आप देखेंगे कि आदमी ने किस तरह धरती को उलट पलटकर माटी के धूहे के नंगे पहाड़ खड़े कर दिए। लगभग तीन सौ किलोमीटर की परिधि का नामोनिशां मिट गया। पहाड़ पिसकर बिजली में बदल दिए गए। खैर के वो अद्भुत जंगलों, वन्यजीवों की बात कौन करे ? यहां के वासिंदे आज  किस लोक में हैं? किसी को इसकी खबर नहीं। विकास का आक्टोपस सिंगरौली से लगे सरई क्षेत्र के खूबसूरत जंगलों की ओर बढ़ रहा है। यह दुनिया के सबसे संपन्न जैव विविधता वाला क्षेत्र है। पेड़ पौधों की दृष्टि से और जीवजंतुओं की दृष्टि से भी। छत्तीसगढ़, झारखंड के हाथियों का यह कारीडोर है। भालुओं का प्राकृतिक आवास। गुफाओं की श्रृंखला आदम सभ्यता की कहानी कहती हैं। इस क्षेत्र का गुनाह यह है कि इसके पेट में कोयला है और वह कोयला हमारी ग्रोथरेट के लिए जरूरी है। इसलिये चाहिए हर हाल पर, किसी कीमत पर। कभी कभी, गुण भी मौत के गाहक बन जाते हैं। जैसे कस्तूरी मृग के लिए, मणि नाग के लिए। यह तय है कि आज नहीं तो कल, इस खूबसूरत वन की कस्तूरी और मणि की कीमत विकास की बलिबेदी पर चढ़कर चुकानी होगी।

 

कहते  हैं कि हमारा समाज धर्मभीरु है। उसकी रक्षा के लिए हम किसी पराकाष्ठा तक जा सकते हैं। यदि ऐसा आप भी सोचते हैं तो एक बार चित्रकूट हो आइए। यहां भगवान श्रीराम साढ़े ग्यारह वर्ष रहे। जहां वे विचरते रहे होंगे, वहीं के जंगल और पहाड़ों के भीतर उम्दा किस्म का बाक्साइट है। इसलिए भगवान् राम की स्मृतियां बची रहे या चाहे जाएं चूल्हे भाड़ में। बेरहम विकास यात्रा और ग्रोथरेट के चंद्रखिलौना के लिये हमे वो जंगल और वो पहाड़ चाहिए ही चाहिए। जिस सिद्ध पहाड़ को देखकर राम ने ..भुज उठाय प्रण कीन्ह..का संकल्प लिया था, उस पहाड़ की गति देखेंगे, जरा भी संवेदना होगी तो रो पड़ेंगे। जेसीबी के पंजों से ऐसे बाक्साईट निकाला है जैसे गिद्ध मरी लाश से अँतड़ियां निकालते हैं। सरभंग ऋषि का जहाँ आश्रम था, उस वन प्रांतर को भी खनिज के लिए शिकारी कुत्तों की तरह नोचा खाया गया है।

 

पूरे देश के पहाड़ों और वनों के साथ ऐसे ही निर्दयी व्यवहार हो रहा है। किसलिए..क्योंकि विकास के लिए ये जरूरी है। इससे ग्रोथरेट बढ़ती है। ग्रोथरेट की गणित बड़ी बेरहम है। खड़े हुए पेंड़ों का विकास में कोई योगदान नहीं। इन्हें काटकर वहाँ से राजमार्ग निकालिए और पेंड़ों को  आरा मिल भेजिए या पेपर मिल, तभी विकास को गति मिलेगी। खड़े हुए पहाड़ विकास के बाधक हैं। उन्हें केक की तरह काटकर सड़क में पसराना पड़ेगा, विकास की गाड़ी तभी आगे बढेगी। बहती हुई नदियों का विकास में तब तक कोई योगदान नहीं जब तक कि इन्हें बाँधकर गाँवों को न डुबा दिया जाए। यह विकास का नया फलसफा है जहाँ संवेदना, स्मृति, जिंदगी की कोई हैसियत नहीं। विकास के समानांतर विनाश की भी ग्रोथरेट होती है। पर इसे नापे कौन? यह अर्थशास्त्रियों के विमर्श का विषय नहीं है।

 

अब ये कुछ सवाल खुद से पूछिये। क्या हम कोई पहाड़ बना सकते हैं? क्या जंगल, नदी, झरने पैदा कर सकते हैं? तो फिर इन्हें सजाए मौत देने, नष्ट भ्रष्ट करने का अधिकार किसी को कहां से मिला? पुराण कथाओं में पढ़ा है कि एक बार सहस्त्रबाहु ने नर्मदा को बाँधने की कोशिश की थी। परशुराम ने उसके सभी हाथ काट डाले। आज हम  नदियों को बाँधने, उनकी धारा को मोड़ने की, पहाड़ों और जंगलों को खाने की राक्षसी कोशिशें कर रहे हैं। इन्हें हमारे वैदिक वाग्यमय में माता, पिता, सहोदर,  भगिनी, पुत्र, बंधु वाँधवों का दर्जा कुछ सोच समझकर ही दिया गया है। ये हमें देते ही देते हैं। ये हैं तभी हम हैं। नीतिग्रंथों में लिखा है कि प्रकृति से हम उतना ही लें जितना कि एक भ्रमर फूल और फल से लेता है। हमें गाय की तरह दुहने की इजाजत है, गाय को ही काटकर खाने की नहीं। विकास की निर्दयी होड़ ने प्रकृति को कत्लगाह में बदल दिया है। संभल सकें तो सँभलिए, नहीं तो याद रखिए, ईश्वर की लाठी बेआवाज़ होती है..और हर किए की सजा मिलती है, इसी लोक और इसी काया में।

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श्री जयराम शुक्ल, वरिष्ठ पत्रकार

न्यूज़ सोर्स : जयराम शुक्ल