आजादी की लडा़ई और इसके बाद की राजनीति में चौबीसों घंटे फंदे रहने वाले ये नेता लिखने-पढ़ने का समय निकाल लेते थे। इस पार या उस पार जो भी बोलते थे, प्रभावी बोलते थे। यहीं से नारे निकलकर आंदोलन की शक्ल में ढल जाते थे। इनके बोले हुए शब्द आज भी संदर्भों के तौर पर उद्धृत किए जाते हैं। अब जो सामने हम देख रहे हैं उससे लगता है कि हमारे भाग्य विधाताओं का पढ़ने लिखने से कोई वास्ता रहा नहीं।

 

आलेख......

अब नई तहजीब के पेशे नज़र हम !

  • जयराम शुक्ल

       लोकप्रिय व्यंग्य कवि माणिक वर्मा की एक कविता है..इन नीचाइयों की अजब ऊँचाइयाँ..। पैमाना सफलता या उपलब्धि भर नापने का नहीं होता, उसके विलोम को भी आँकने का होता है। बुरा आदमी कितना बुरा है, यह भी अच्छा आदमी कितना अच्छा है, के बरक्स तय होता है। कवि ने नीचाइयों की डेप्थ नहीं हाइट की बात की है। नकारा बात को सकारात्मक नजरिये से ऐसे भी देखा जा सकता है। व्यवस्था का आग्रह रहता है कि मसलों को पाजटीविटी से देखा जाए। तरक्की हो रही है तो उसके मुकाबले पतन भी। विकास की ग्रोथरेट होती है तो विनाश की ग्रोथरेट तय हो जाती है अपने आप, बिना किसी मीटर के नापे। इन्हीं तमाम संदर्भों की पृष्ठभूमि में हम राजनीति की भाषा के बारे में सोचते हैं, तब और अब।

    राजनीति में नारे और भाषण अब जुमलों में सिमट गए हैं। ये जुमले भी दो कौड़ी के। प्रशासनिक व राजनीतिक शब्द संक्षेपों की जिस अंदाज में व्याख्या होती है, सिर धुनने का मन करता है। मामला कोई एकतरफा नहीं। राजनीति में जो जहाँ है, वहीं से जुमले, शिगूफे के कागजी राकेट छोड़ रहा है। समाज में भाषा के स्तर पर हम पतन के चरम शिखर की ओर उन्मुख हैं। अभी जीएसटी के माने गब्बर सिंह टैक्स सुना। इससे पहले किसी भाषण में हारवार्ड नहीं हार्डवर्क चलेगा, सुना था (जबकि अर्थनीति बनाने वहीं के पढ़े लोग हायर किए गए हैं)। ऐसे ही श्रीमुख से बिहार में तक्षशिला की बात भी सुन चुका था। और भी इसी तरह बेसिरपैर की टाँगतोड़ तुकबंदियाँ आए दिन सुनने को मिलती हैं। कमाल त़ो यह कि चैनलों के पैनलिए इन पर गंभीर विमर्श करते दिख जाते हैं।

     पिछले कुछ वर्षों की तरफ लौटकर देखें कि सार्वजनिक सभाओं, संसद, विधानसभाओं में जनप्रतिनिधियों के भाषणों के बीच कैसे - कैसे जुमले आए, कैसे - कैसे शब्द ट्वीट किए गए। संदेह होता है कि क्या यही लोग नेहरू, लोहिया और अटलबिहारी वाजपेयी के वंशधर हैं। इन महान नेताओं के बोले हुए शब्दों को उनके समर्थक मंत्रों की तरह भजते थे। इन्हीं भाषणों से नारे निकलते थे जो राजनीति और समाज की दिशा मोड़ देने का माद्दा रखते थे। ये क्या ह़ो गया है? भाषाई मर्यादा, उसका स्तर, संव्यवहार कहाँ से कहाँ जा रहा है ?

   पहले के नेता लड़ते थे और पढते थे। नेहरू, लोहिया में राजनीति से इतर पढ़ने और लिखने की होड़ रहती थी। जनसंचार के विपन्न दौर में भी दोनों ने इतना लिखा कि इन्हें पूरा पढ़ने में सालों साल बीत जाए। एक वाकया है ..जब जनता सरकार बनी और इंदिरा जी घर बैठ गईं तो जयप्रकाश नारायणजी इंदिरा से मिलने घर गए और पूछा- इंदू, अब तुम्हारा खाना खर्चा कैसे चलेगा.? (जयप्रकाशजी व इंदिराजी के बीच सगे चाचा भतीजी सा रिश्ता था) इंदिरा जी ने जवाब दिया  - फिकर मत करिए, पिताजी की किताबों की इतनी राँयल्टी आ जाती है कि बिना कुछ किए गुजारा चल जाएगा। लोहिया तो अकेले ही रहे बिना ब्याहे। उनके किताबों की रायल्टी भी नेहरू से कुछ कम नहीं आती होगी। कौन लेता होगा, यह तो नहीं जानता पर इन सबका जिक्र इसलिए किया क्योंकि आजादी की लडा़ई और इसके बाद की राजनीति में चौबीसों घंटे फंदे रहने वाले ये नेता लिखने-पढ़ने का समय निकाल लेते थे। इस पार या उस पार जो भी बोलते थे, प्रभावी बोलते थे। यहीं से नारे निकलकर आंदोलन की शक्ल में ढल जाते थे। इनके बोले हुए शब्द आज भी संदर्भों के तौर पर उद्धृत किए जाते हैं। अब जो सामने हम देख रहे हैं उससे लगता है कि हमारे भाग्य विधाताओं का पढ़ने लिखने से कोई वास्ता रहा नहीं। जो कुछ हैं भी, वे वकीली ज्ञान से ही नहीं उबर पाए। राजनीति की बात भी वो जिरह की भाषा में करते हैं।

      दरअसल अब बड़े नेताओं के लिए पढ़ने, लिखने सोचने विचारने का काम पीआर एजेंसियों ने ले लिया है। वही भाषण लिखते हैं, जुमले गढ़ते हैं और सोशल मीडिया को हैंडल करते हैं। अब एड एजेंसियों का जो काँपी राइटर ..ठंडा मतलब कोका कोलकोला..की पंच लाइन गढ़ता है उससे तो यही उम्मीद कर सकते हैं कि जीएसटी का माने गब्बर सिंह टैक्स निकाले या बिहार में तक्षशिला लाकर खड़ा कर दे। राजीव गांधी का वह डायलॉग आज भी याद होगा- सत्ता के दलालों को समझना चाहिए कि इन नरम दस्तानों के भीतर लौह के पंजे हैं..। तब ये बात उड़ी थी कि ये संवाद सलीम-जावेद ने लिखे थे। राजनीति में पीआर एजेंसियों की यह पहली दस्तक थी। आज की इन एजेंसियों में काम करने वालों का किताबों से कोई वास्ता नहीं रहता। ये संदर्भ सामग्रियों के लिए नेट पर आश्रित हैं। विकीपीडिया इनके लिए ज्ञान की गीता है। जबकि विकीपीडिया एक ओपन पेज है, आप भी उस में घुसकर योगदान दे सकते हैं, कुछ भी संपादित कर सकते हैं। बड़े नेताओं की देखा देखी छोटे और मझोले नेता भी लोकल पीआर एजेंसियों की शरण में चले गए। अब जिनसे कंम्प्यूटर के कीबोर्ड में अँगुली तक रखते नहीं बनता वे भी ट्वीट के मजे ले रहे हैं। नमूना देखिए उधर सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली के प्रदूषण के मद्देनजर पटाखों पर बंदिस लगा दी। इधर प्रदेश के एक मंत्री का तड़ से ट्वीट आया.. प्रदेशवासियों, दिल्ली के मित्रों को बुला लीजिए क्योंकि यहाँ दीपावली मनाने की पूरी आजादी है..। मुझे नहीं लगता कि संवैधानिक मर्यादा से बँधे किसी व्यक्ति को उच्चतम न्यायालय के आदेश के संदर्भ में ऐसा तंज कसना उचित कहा जाएगा। और वह भी तब जब पर्यावरण जैसा संवेदनशील मसला हो। ये ऊटपंटाग लफ्जों वाले ट्वीट किए भी इसीलिए जाते हैं ताकि चर्चाओं में आएं, ज्यादा से ज्यादा हिट्स व लाइक मिले। पीआर एजेंसियों की अंधी स्पर्धा जनप्रतिनिधियों को जोकर बनाए दे रही है और वे खुश हैं कि पहले पन्ने में छप रहे हैं, ब्रेकिंग में चल रहे हैं। कैसे भी सही।

     एक बार मोरारजी भाई देसाई बाणसागर के उद्घाटन के सिलसिले में रीवा आए। 78 की बात है, तब मैं दसवीं कक्षा में पढ़ता था। मैं तब के सांसद यमुनाप्रसाद शास्त्रीजी के पारिवारिक सदस्य की भाँति रहा। मोरारजी भाई की पत्रकार वार्ता रखी गई। जिंदगी में पहली बार पत्रकारों को व पत्रकार वार्ता देखी, वह भी प्रधानमंत्री की। देसाई जी ने पहले एक एक करके सबका परिचय पूछा। फिर न्यूज एजेंसियों व दैनिक अखबारों के प्रतिनिधि के अलावा सबको बाहर जाने को कहा। पत्रकार वार्ता शुरू हुई। मोरारजी भाई ने अपने सामने टेपरिकार्डर रखा। खुद ही आन किया, सवालों के जवाब दिए। यह कहते हुए समापन किया कि मैंने जो कहा है वही छपे, आपने जो सोचा है वह नहीं। यह बात मुझे तब समझ आई जब मैं पत्रकारिता की पढाई पढ़ रहा था। मोरारजी भाई और प्रख्यात अमेरिकी पत्रकार सैमूर हर्ष के बीच मानहानि का केस चल रहा था। इस केस में मोरारजी भाई ने सैमूर से माफी माँगने व कोर्ट के बाहर समझौते के लिए विवश कर दिया था। तब उनकी उम्र 94 वर्ष की थी। मोरारजी भाई जैसे महान नेता राजनीति में शब्दों की महत्ता और मर्यादा जानते थे। वस्तुतः राजनीति है ही शब्दों की बाजीगरी का नाम। यह एवरेस्ट तक पहुंचा सकती है तो अरबसागर में विसर्जित भी कर सकती है।

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वरिष्ठ पत्रकार, प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक और मुखर वक्ता श्री जयराम शुक्ल सामयिक और ज्वलंत मुद्दों के साथ सामाजिक, राजनैतिक व धार्मिक विषयों पर बेबाकी से अपने विचार व्यक्त करते हैं। श्री शुक्ल ने अनेक समाचार पत्रों और पत्रिकाओं का सम्पादन करने के साथ पत्रकारिता में भी अपनी अलग पहचान बनाई है। वे इन दिनों स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। कृषि और बागवानी में भी रूचि रखने वाले श्री शुक्ल रीवा में निवास कर रहे हैं। संपर्क : 8225812813