आलेख..

धार्मिक - सामाजिक आयोजनों में श्रद्धालुओं का पंजीयन और बीमा ! 

•          मधुकर पवार 

पिछले दिनों हाथरस में सूरजपाल उर्फ भोले बाबा के सत्संग के बाद भगदड़ में  121 अनुयायियों की मौत ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है लेकिन भोले बाबा का आशीर्वाद पाने वाले राजनेता और प्रशासन का ढुलमुल रवैया हैरान कर देने वाला है। तमाम मीडिया खबरों में इस बात की चर्चा हो रही है और विभिन्न राजनीतिक दल आरोप लगा रहे हैं कि इस हृदय विदारक घटना प्रशासन की लापरवाही के कारण हुई है। कोई भी राजनीतिक दल सीधे सीधे तथाकथित  बाबा का नाम लेने से कतरा रहे हैं। मंगलवार, 09 जुलाई को उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा गठित एस.आई.टी. ने अपनी जांच रिपोर्ट भी सरकार को सौंप दी है जिसमें आयोजकों के साथ कुछ अधिकारियों को दोषी ठहराया गया है जबकि सूरजपाल का नाम तक लिया गया है। सरकार ने कुछ अधिकारियों को निलम्बित भी कर दिया है। एक दो नेताओं को छोड़कर प्रमुख राजनीतिक दलों के सभी नेताओं ने दुर्घटना के लिये प्रशासन को ही जिम्मेदार ठहराया है। इस प्रकरण से यह तो समझना आसान है कि सूरजपाल का अपने अनुयायियों में अच्छा खासा प्रभाव है और कोई भी दल उनसे पंगा नहीं लेना चाहता। आने वाले दिनों में उपचुनाव भी होने हैं। ऐसी स्थिति में साभी राजनीतिक दल तटस्थ रहकर सूरजपाल के अनुयायी, जो मतदाता भी हैं, उन्हें किसी भी तरह से नाराज नहीं करना चाहते हैं।

प्रशासन से कार्यक्रम के आयोजन के पूर्व अनुमति ली गई थी जिसमें बताया गया था कि 80000 से अधिक अनुयायी आएंगे। पहली बात तो यह है कि 80000  से अधिक अनुयायी आएंगे तो यह स्पष्ट नहीं होता कि 80000 के बाद की संख्या कितनी हो सकती है ? दूसरा... समागम के आयोजन स्थल की सुरक्षा व्यवस्था जब स्वयं आयोजक संभाल रहे थे तो इसमें प्रशासन को दोष देना कितना उचित है ? इस मामले में प्रशासन को दोषी मान लेना कि उन्होंने अनुमति दी है तो सुरक्षा की जिम्मेदारी भी प्रशासन की होगी, यह जरूरी इसलिए भी नहीं है कि यह आयोजन पूरी तरह निजी था। ऐसी स्थिति में पूरी जिम्मेदारी आयोजकों की ही होनी चाहिए। हालांकि भारत जैसे धार्मिक और सामाजिक विविधता वाले देश में हर समय कहीं ना कहीं कोई धार्मिक सामाजिक आयोजन होते ही रहते हैं और इन आयोजनों में लाखों की भीड़ इकट्ठी होती है। सिंहस्थ और कुंभ मेलों में तो करोड़ों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं। पिछले तीन-चार दशकों में नासिक में आयोजित कुंभ में भगदड़ मचने की घटना हुई थी जिसमें काफी श्रद्धालुओं की मौत हो गई थी। यह भी सही है कि इन मेलों / समागमों में अनुमानित संख्या ही बता सकते हैं, निश्चित संख्या बताना मुश्किल होता है लेकिन नामुमकिन भी नहीं है।  नामुमकिन इसलिए कि श्री अमरनाथ यात्रा और चार धाम यात्रा इसका उदाहरण है। इन यात्राओं पर जाने वाले श्रद्धालुओं का पंजीयन होता है। उसी के अनुसार  श्रद्धालु निश्चित तिथि पर प्रस्थान कर यात्रा पूरी करते हैं। संचार और कंप्यूरीकरण के चलते अब यह बहुत आसान हो गया है। इससे न केवल भीड़ पर नियंत्रण पाने में सफलता मिली है बल्कि विषम परिस्थिति उत्पन्न होने पर स्थिति पर नियंत्रण पाना आसान हो गया है। हाल ही में वर्षा के कारण अमरनाथ और चार धाम यात्रा को रोकना पड़ा था। ऐसी स्थिति में श्रद्धालुओं को सभी सुविधाएं आसानी से उपलब्ध हो गई और प्रशासन को भी दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ा। इसी संदर्भ में हाथरस की घटना को देखें तो यह प्रश्न उठना स्वाअभाविक है कि क्या इस दुर्घटना को रोका जा सकता था। घटना का जो वीडियो सामने आया है, वह आयोजकों की अदूरदर्शिता और कुप्रबंधन की ही बयानी करता है। यदि आयोजक अनुयायियों की संख्या को सीमित रखते तो संभवत इस हृदय विदारक घटना को रोका जा सकता था। संख्या को सीमित रखने का एकमात्र उपाय श्रद्धालुओं / अनुयायियों का पंजीयन करना ही है। पंजीयन कराया जाता तो संभवत निश्चित और सीमित संख्या में अनुयायी आते जिससे किसी भी विषम परिस्थिति पर काबू पाया जा सकता था।

अव्यवस्था के चलते अथवा लापरवाही से हुई दुर्घटना के बाद प्रशासन द्वारा मुआवजे की घोषणा की जाती है। हादसे के बाद यह पीड़ित परिवार के लिए मरहम का काम तो करती है लेकिन जिनकी मौत हो चुकी है उसकी भरपाई करना संभव नहीं होता है।  आमतौर पर मृतक के परिवारों को जो भी मुआवजा मिलता है, वह काफी कम होता है। 2, 5  या अधिकतम 10 लाख रुपए तक की राशि मृतक के परिजनों और घायलों को भी 50 हजार रूपये से लेकर एक-दो लाख रूपये का मुआवजा दिया जाता है। केंद्र और राज्य सरकारों को इस तरह के आयोजनों को लेकर स्पष्ट नीति बनानी चाहिए। इसके तहत संख्या को सीमित रखने के साथ सभी अनुयायियों और श्रद्धालुओं का पंजीयन अनिवार्य करना चाहिए। यदि एक से अधिक दिनों तक कार्यक्रम चल रहे हैं तो दिनों के हिसाब से पंजीयन करवाना चाहिए ताकि भीड़ पर नियंत्रण पाया जा सके। इसके अलावा सबसे महत्वपूर्ण यह  है कि यदि तमाम व्यवस्था और सावधानी के बाद भी कोई दुर्घटना होती है तो इसके लिए सभी भाग लेने वालों का पंजीयन के दौरान ही सामूहिक बीमा करवाना अनिवार्य करना चाहिए ताकि पीड़ित परिवार को आर्थिक मदद मिल सके। पंजीयन करवाना अनिवार्य करने से आयोजकों को भी व्यवस्था करने में सुविधा होगी तथा श्रद्धालुओं और अनुयायियों को भी किसी तरह की परेशानी या दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ेगा। इसके अलावा जहां पर मेला / समागम क आअयोजन किया गया है, उस शहर अथवा स्थान पर व्यवस्थाओं के लिए अनावश्यक दबाव भी नहीं पड़ेगा। देश में जितने भी धार्मिक और सामाजिक आयोजन हो रहे हैं आयोजक चाहते हैं कि लाखों की संख्या में भीड़ जमा हो ताकि वे शान से कह सकें कि पैर रखने तक जगह नहीं थी।

 पिछले वर्ष भोपाल - इंदौर मार्ग पर पंडित प्रदीप मिश्रा के कुबरेश्वर धाम पर लाखों श्रद्धालुओं के इकट्ठे हो जाने से उत्पन्न अवव्यस्था को लोग भूल नहीं  होंगे। इसी तरह पिछले वर्ष ही छिंदवाड़ा में जिला मुख्यालय से कोई 10 - 12 किलोमीटर दूर छिंदवाड़ा - नागपुर मार्ग पर सिमरिया में कमलनाथ ने पंडित धीरेंद्र शास्त्री की कथा का आयोजन करवाया था। कथा के दिनों में छिंदवाड़ा -  नागपुर मुख्य मार्ग को ही बंद कर दिया गया था । श्रद्धा और आस्था अपनी जगह है लेकिन आम आदमी को ऐसे आयोजनों से कोई तकलीफ ना हो, इसका भी ध्यान रखा जाना चाहिए। कार्यक्रमों / समागमों के दौरान पूरी व्यवस्था का जिम्मा आयोजकों की ही होती है लेकिन जब कभी दुर्घटना होती है तो ठीकरा प्रशासन के सिर पर फोड़ दिया जाता है। सुरक्षा व्यवस्था के लिए प्रशासन की सेवा नहीं ली जाती है, तब इस तरह के आरोप नहीं लगाने चाहिए। यदि प्रशासन से अनुमति लेने भर से यह मान लिया जाए की सुरक्षा की जिम्मेदारी प्रशासन की ही है तो यह सरासर गलत है । यदि प्रशासन से सुरक्षा प्रबंध का अनुरोध किया जाता है तो इसका निर्धारित शुल्क भी आयोजकों से लेना चाहिए। साथ ही यह भी सुनिश्चित करना चाहिये कि सभी श्रद्दालुओं का सामूहिक बीमा भी करवाया जाए। यह केवल धार्मिक और सामाजिक कार्यक्रमों के लिए नहीं बल्कि राजनीतिक कार्यक्रमों पर भी लागू होना चाहिए

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