नैतिकता की तलाश
व्यंग्य...
नैतिकता की तलाश
- डॉ विनोद पुरोहित
मास्टर जी को अपने बड़े से अहाते में कुछ ढूंढते हुए देखकर पड़ोसी ज्ञानपाड़े ने पूछा- सुबह-सुबह क्या तलाश रहे हैं मास्टरजी। मास्टरजी ऐनक से झांकते हुए बोले- नैतिकता कहीं गिर गई है, उसे ही ढूंढ रहा हूं। जोर का ठहाका लगाते हुए ज्ञानपाड़े बोले- मास्साब यह राष्ट्रीय मुद्दा बन गया है। सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि नैतिकता गिर रही है। आपने ब्रेकिंग दे दी कि आपके अहाते में गिरी है। हालांकि नैतिकता क्या, सभी में गिरावट है। रुपया गिर रहा है, लोगों की नीयत गिर रही है, मनुष्य की कीमत गिर रही है। जो चल रहा है वही खरा है, भले ही वह खोटा हो। सियासत से समाज तक हर जगह नैतिकता सजावट की चीज हो गई है। यह नीलकंठ जैसी चिरैया हो गई है, जिसके दर्शन की अभिलाषा दिवाली के दिवाली ही की जाती है। इसके बाद उसकी क्या गत है, कोई नहीं जानता और ना ही कोई जानना चाहता है। ज्ञानपाड़े की बात सुनकर मास्टरजी बोले- नैतिकता जैसे मूल्य और संस्कार हमारे देश की पहचान हैं। तपाक से ज्ञानपाड़े बोले- वक्त तेजी से बदल रहा है। नैतिकता अब पुराने दौर की बात हो गई। उसने देश- काल और परिस्थिति के अनुसार खुद को बदलना सीख लिया है। या यूं कहें कि नैतिकता का नया वर्जन आ गया है। स्थान के हिसाब से इसका नामकरण कर लिया गया है। नैतिकता के नए वर्जन की मारक क्षमता व्यक्ति के व्यवहार के अनुसार बदल जाती है। यह इसका अनोखा गुणसूत्र है। अब इसे धारण करने वालों की सफलता तय है…किसी की किस्मत ही खराब हो तो अलग बात है।
इस पर मास्टरजी झुंझलाकर बोले- अरे नैतिकता कोई बदलने वाली चीज थोड़ी है, यह तो संस्कार की बात है। ज्ञानपाड़े बोले- संस्कारों पर प्रवचन देने वालों की ही कथनी और करनी में ज्यादा फर्क होता है। ऐसे लोग मानते हैं कि नैतिकता जैसी मूल्यगत बातों का अवमूल्यन करना उनका हक है। दरअसल आदेश या प्रवचनों का व्यवहारिकता से कोई वास्ता नहीं होता है। मसलन, दूसरों को सिगरेट छोड़ने का ज्ञान देने वाले अक्सर सरेआम धुंआ उड़ाते मिल जाएंगे। पुलिस वालों के बच्चों के ज्यादा अराजक होने के कई किस्से मिल जाएंगे। शिक्षकों के बच्चे फेल हो रहे हैं। हर चीज पुरानी हो जाती है तो नैतिकता क्यों नहीं, उसे भी पुरानी होने का हक है। कितने रुपए चलन से बाहर हो गए। अब राजनीतिक पार्टियों और समाजों में लोग पुराने होने लगे हैं। ऐसे लोग स्टोररूम में रख दिए जाते हैं और उस पर चस्पा कर दिया जाता है- मार्गदर्शक मंडल। मास्टरजी पहले लाज शर्म और नैतिकता को इंसान का आभूषण माना जाता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है। इन आभूषणों का पानी अब उतर चुका है। वैसे नैतिकता का सीधे-सरल लोगों पर ज्यादा असर होता है। ये फितरती लोगों के पास नहीं फटकती। कमाल यह है कि फितरती लोग ही इसके बड़े वाहक होते हैं। ज्ञानपाड़े अब अपने पूरे रौ में थे बोले- नैतिकता की गिरावट की कहानी बहुत पुरानी नहीं है। इस पीढ़ी के लोग अभी भी मृत्युलोक में मिल जाएंगे। समूचे राष्ट्र में उथल-पुथल मची थी, बाजार मुक्त होकर घरों में घुस रहे थे, जमाखोरी जरूरत हो गई थी, घोटाले फैशन हो गए थे। जिसे जो मिल रहा था, डकार रहा था…इस दौर में नैतिकता पगबाधा थी। हालांकि लोगों के मनों में अभी उसका लिहाज था। उसे छिन्न-भिन्न भी नहीं करना चाहते थे इसलिए नैतिकता पीड़ित इन लोगों ने मिलकर एक पहुंचे हुए महात्मा से प्रार्थना की… कुछ करिए इस नैतिकता का क्या करें। प्रार्थना और भेंट से महात्मा प्रसन्न हुए और कहा- जो जैसा चाहे वो वैसा करे। नैतिकता उसी के अनुसार अपना रुख और रूप धर लेगी। लोगों की मुराद पूरी हो गई और वे महात्मा की जयजयकार करते हुए वहां से चले गए। इसके बाद महात्माजी ने नैतिकता को बुलाया और सलाह दी कि तुम्हारी इज्जत तुम्हारे हाथ में है। ऐसा कोई काम न करो कि इज्जत पर बट्टा लग जाए और वर्षों कमाया यश मिट्टी में मिल जाए। तब से नैतिकता का प्रवाह भी सरस्वती नदी की तरह अदृश्य हो गया है। यानी है भी और नहीं भी है। (कार्टून .... साभार - गूगल )
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डॉ. विनोद पुरोहित वरिष्ठ पत्रकार हैं। उन्होंने अनेक समाचार पत्रों में सम्पादक का दायित्व भी बखूबी निभाया है। उनकी पैनी नजरों से समाज का कोई भी पक्ष छुपा नहीं रहा है। जब कहीं कुछ विरोधाभाष दिखाई देता है... पत्रकार के साथ उनके अंदर छुपा व्यंग्यकार जाग्रत हो जाता है और वे उस व्यवस्था पर प्रहार करने से नहीं चूकते।