आज का चिंतन

वो तो मैं हूं...

 

आपसी रिश्तों, विशेषकर 

पति-पत्नी में कई बार 

यह देखने सुनने को मिलता है 

कि वो तो मैं हूं जो 

निभाए जा रहा हूं वरना...

 

मैं का अहम

व्यक्ति को ज्यादातर 

यह लगता है कि

रिश्ता निभाने के लिए 

सारी मेहनत, सारा त्याग 

केवल उसी ने किया है और 

सामने वाले ने बदले में 

पर्याप्त नहीं किया है। 

इस पर्याप्त का 

कोई मानक नहीं होता है।

 

अनदेखी

रिश्तों में जितनी निकटता होती है 

उतनी ही एक दूसरे के प्रति 

उपेक्षा और अनदेखी हो जाती है।

दूसरे से कुछ भी किए जाने की

अपेक्षा भी असीमित होती है।

 

हिसाब किताब

किसने कितना किया 

इसका हिसाब किताब करते रहे 

तो रिश्तों को निभाना 

मुश्किल ही नहीं 

असंभव हो जाता है।

 

स्वीकार्यता

रिश्तों में माधुर्य और 

उष्णता बनाए रखने के लिए 

एक मात्र आवश्यकता 

सहज स्वीकार्यता की होती है।

और यही सबसे 

मुश्किल कार्य होता है।

 

उपाय

अपने झूठे और 

मिथ्या अहंकार का 

पूर्ण रूप से त्याग करना ही 

इसका एकमात्र उपाय है।

_जो प्राप्त है वही पर्याप्त है_

केवल यही सोच 

पूर्ण स्वीकार्यता ला सकती है।

 

संजय अग्रवाल 

*संपर्क संवाद सृजन*

नागपुर / भोपाल