यूक्रेन युद्ध, नाटो, यूरोप और भारत ........................... आलेख............................. अरूण कुमार जैन

यूक्रेन युद्ध, नाटो, यूरोप और भारत
अरूण कुमार जैन
विगत दिनों विश्व की सबसे बड़ी खबर यदि कोई थी तो वह ट्रंप और जेलेंस्की की नाटकीय मुलाकात और बच्चों की तरह लड़ना। विश्व स्तर की राजनीति और कूटनीति में इन दिनों का सबसे हल्का, स्तरहीन और सही मायने में भौंडा प्रदर्शन था, जिसमें सामान्य स्तर के शिष्टाचार को बलाए ताक रखा गया। यह सभी को पता है कि असली लड़ाई नाटो के विस्तार और रुस की घेराबंदी के मूल प्रश्न पर लड़ी जा रही है। रुस की भौगोलिक स्थिति विघटन के बाद की स्थिति में किसी भी हालत में वह यह सहन नहीं कर सकता कि उसके समुद्री मुहाने पर नाटो चौकीदार बन कर बैठ जाए और उसके विशालकाय पोत निर्भय होकर अपने ही समुद्र से आगे नहीं बढ़ पाएं। यद्यपि संयुक्त सोवियत रुस के विघटन के पश्चात रुस की आर्थिक स्थिति मजबूत होने के बावजूद पिछले सालों से चल रहे यूक्रेन युद्ध में खराब हुई है।
जब रूस ने युद्ध शुरू किया तब उसे उम्मीद नहीं थी कि युद्ध इतना लंबा चलेगा और नाटो के पैसा और हथियार देने के बाद यूक्रेन इतना लंबा युद्ध खींच लेगा। यूक्रेन के जेलेंस्की जो एक परम्परागत राजनेता ही नहीं हैं, उन्हें कूटनीति का कोई अनुभव नहीं है और वे पारंपरिक नेताओं जैसी नीति जानते ही नहीं जहां कभी आगे बढ़ना पड़ता है वहीं पैर पीछे भी लेना आना चाहिए और यही कूटनीति, युद्ध नीति का एक जरूरी हिस्सा माना जाता है। जिसमें जेलेंस्की कभी स्थिर रहे ही नहीं, वे नाटो की रणनीति पर चलते रहे जहां सभी हिस्सेदार यही सोचते रहे हैं कि मुझे कहां फायदा मिल सकता है। ज्ञातव्य है कि यूक्रेन के पास अकूत मिनरल्स का खजाना है जिसे पाने की चाहत अमेरिका , रुस जैसी महाशक्तियों में पहले से है। अमेरिका जो कि नाटो का सबसे प्रमुख देश है और उसकी आदत हमेशा रही है कि वह कहीं भी अंकल सैम वाली दादागिरी की स्थिति में रहे। सबसे ज्यादा पैसा, हथियार देना और अपनी दादागिरी थोपना यह अमेरिका का रवैया पुराना है और कोई भी राष्ट्रपति आ जाए उसकी यह मानसिकता बदल नहीं सकती। फिर जेलेंस्की यह मूड बनाकर गए थे कि ट्रंप जिस तरह हर जगह बजट में कटौती करते जा रहे हैं उसमें वह नाटो के नाम पर पूरी मदद लेते रहें जिसमें हथियार और नकदी शामिल है। ट्रंप ने उन्हें बुलाया भी इसीलिए था कि अमेरिका का हित इसी में है कि वह युद्ध विराम करवा पाएं और यूक्रेन के माइंस और मिनरल्स का दोहन, अमेरिका के हित में कर सकें। इसके लिए ट्रंप ने पहले रुस से लगातार संपर्क किया, पुतिन से मिलकर आगे की राह का रोड मैप और युद्ध विराम का रास्ता आसान कर सके और बेनतीजा युद्ध की समाप्ति करवा सकें और इस विराम का सेहरा अपने सिर बंधवा सके। अभी तक की स्थिति में यूक्रेन के ताबड़तोब द्रोण हमलों से रुस के बड़े बड़े जंगी बख्तरबंद गाड़ियां ,मिसाइलें, विमान और हेलीकॉप्टर तथा नौसैनिक बेड़ों को जिस तरह से नुकसान पहुंचाया गया और नाटो से मिले विभिन्न श्रेणी के अत्याधुनिक हथियारों की बड़ी मदद से यूक्रेन ने अंगद के पांव की तरह जमीन नहीं छोड़ी जबकि बीस प्रतिशत से ज्यादा भूमि रूसी सेनाओं ने कब्जा ली है। रूस का भी बड़ा नुकसान इस युद्ध में हुआ है, उसकी अपेक्षा से कहीं बहुत ज्यादा सैनिकों को जान से हाथ धोना पड़ा है। एक अनुमान के अनुसार रूस के लगभग ढाई लाख से अधिक तथा यूक्रेन के करीब आठ लाख सैन्य और असैन्य मानव की हानि हुई है।
जेलेंस्की इस शर्त के साथ आए थे कि उन्हें पता था जिस तरह ट्रंप टीम की तैयारी थी और सभी जानते थे कि अमेरिका रुस से हाथ मिलाकर विश्व राजनीति में एक तरफ चीन को झुकाना चाह रहा है और दूसरी तरफ चीन के उत्पादों का फैलता प्रभाव कम करने और अमेरिका तथा अन्य यूरोप के देशों का निर्यात बढ़ाने और भविष्य के हिसाब से व्यापार को अस्त्र शस्त्र से हटाकर दूसरी ओर मोड़ना जरूरी है। तब वह निर्यात किसे करेंगे और वह यूक्रेन को बिना शर्त समझौते के लिए तैयार करना चाह रहे थे, ताकि उसकी इज्जत बची रहे और विश्व आगे के संकट से बच सके। मगर ट्रंप को यह उम्मीद नहीं थी कि एक एहसान तले दबे देश का राष्ट्रपति राजनीति और कूटनीति से नहीं चलकर, ट्रंप के साथ दबकर बात नहीं करेगा और अपना तथा अपने देश का भविष्य और बर्बाद ही करेगा। ट्रंप इसीलिए आपा खो बैठे, उन्हें सपने में भी उम्मीद नहीं थी कि जेलेंस्की के इंकार से उनकी भावी योजनाएं चौपट हो जाएंगी। जेलेंस्की की जल्दबाजी और ट्रंप की गुस्साने की आदत ने भरी सभा में पत्रकारों के सामने व्हाइट हाउस के ओवल में समझौता सभा को अंडे में, जीरो में बदल दिया।
जेलेंस्की भले ही खुद को यूक्रेन का गौरव समझते हों पर वास्तव में वे इस पूरे युद्ध में अपनी धरती पर नाटो और रुस के बीच अपना देश बुरी तरह बर्बाद करवा चुके हैं जहां युद्ध विराम के बाद भी उन्हें यूरोपीय समुदाय की ओर देखना पड़ेगा ताकि अपने देश को फिर से खड़ा कर सकें। ऐसी परिस्थिति में अमेरिका को नाराज करना हर हाल में जेलेंस्की को महंगा ही पड़ेगा । भला हो ब्रिटेन ने तत्काल यूरोपीय देशों और प्रकट में नाटो सहयोगियों की बैठक बुलाकर और जेलेंस्की को शामिल कर मदद का आह्वान कर दिया और समझौते को कुछ नया रूप देकर अमेरिका के सामने रखने और उसे तैयार कर अमली जामा पहनाने की पेशकश की। साथ ही ब्रिटेन ने नाटो को अमेरिका द्वारा छोड़े जाने की स्थिति में अपना नेतृत्व साबित करने को भी पुख्ता किया है और विश्व राजनीति में अपना प्रभाव बढ़ाया है। यद्यपि अमेरिका के बाहर रहने से यूरोपीय देशों का कोई सार्थक प्रभाव रूस पर पड़ने वाला नहीं है और न रुस इस समझौते को मान्यता देगा। जेलेंस्की भी इस बात को भलीभांति समझते हैं और इसीलिए लंदन जाकर उनके तेवर भी कमजोर पड़े हैं उनकी तरफ से अमेरिका के साथ मिनरल्स की विभिन्न खदानों के लिए अमेरिका से समझौता करने के लिए स्वीकृति की घोषणा भी हो चुकी है और सभी ने मिलकर नया प्रारूप युद्धविराम का अमेरिका की ओर भेजने की तैयारी कर ली है। मतलब फिर पंचायत का चौधरी तो अमेरिका ही रहेगा।
इधर पहले भारत भी मोदी जी के नेतृत्व में इन दोनों देशों के बीच समझौता कराने को बेहद उत्सुक था और दोनों देशों का समर्थन भी भारत को प्राप्त था। मगर अमेरिकी चुनाव को देखते हुए और रुस की ओर से भी कुछ धीमी चाल की वजह से मोदी जी को कुछ समय इंतजार करना पड़ा हालांकि यदि नाटो देशों के प्रयास शून्य हो जाते हैं तब भारत को "रायसीना डायलॉग 2025" पूर्व निर्धारित कार्यक्रम में इस कार्य को नई दिल्ली में पूर्ण दिशा देने की पूरी संभावना है। हालांकि अमेरिका और रुस के करीब आने से हमारा भी फायदा है और इस स्थिति में चीन खुद ब खुद भारत से करीबी चाहेगा और उसके क्रियाकलापों में भी भारत से मित्रता के प्रयास ज्यादा तीव्र होंगे। वह अभी तक के इतिहास में कभी भी भरोसेमंद साथी नहीं रहा है और इसीलिए उस पर कदापि विश्वास नहीं किया जाना चाहिए। अब जब ट्रंप ने भी मोदी के द्वारा बेहतर तरीके से इस समस्या का समाधान निकालते हुए युद्ध विराम हेतु समझौता कराए जाने की घोषणा की है, उससे भारत का कद बढ़ा है। समस्या यह भी रहेगी कि क्या रुस जीती हुई जमीन अपने पास से जाने देगा, लगता नहीं है। मगर जेलेंस्की मानने वाले नहीं हैं तब एक काउंटर गारंटी का रास्ता निकल सकता है कि यूक्रेन कभी नाटो का सक्रिय सदस्य नहीं बनेगा। रूस के जहाज अपने समुद्र से सुरक्षित जाने देगा। इसके बिना रूस भी मानने वाला नहीं है। इन सब परिस्थिति के बीच एक सप्ताह में युद्ध विराम के आसार बन रहे हैं और इसका सीधा असर विश्व आर्थिकी पर धनात्मक देखने को मिलेगा, जिसका सीधा असर भारत पर पड़ना लाजिमी है और आने वाले सप्ताह के अंदर भारतीय शेयर बाजार एकदम से उर्ध्वगति की ओर चलते हुए मार्केट को मजबूती प्रदान करेगा। विश्व भर के शेयर बाजार मंदड़ियों के हाथ से निकलते हुए दिखाई देंगे जो आम जनता के लिए भी राहतकारी खबर है। विश्व पर्यावरण भी सुधार की ओर दिखेगा।
चूंकि भारत ने कोविड के समय से वैक्सीन देकर जिस तरह यूरोप छोड़कर, अफ्रीका, एशिया के करीब साठ से अधिक देशों में जो रिश्ते कायम किए हैं उसमें वह दवा, सैन्य उपकरण, कपड़ा, अन्य इलेक्ट्रॉनिक सामान, इलेक्ट्रिकल सामान,अनाज, चावल,चीनी का निर्यात भी कर रहा है और आर्थिक मदद भी मुहैया करा रहा है, वहीं दूसरी ओर इन देशों को मेडिकल सहायता भी बड़े पैमाने पर मुहैय्या करवाई है। इस सबका प्रभाव यूरोप पर भी पड़ा है और हमारा आयात पहले से कम हुआ है। मेक इन इंडिया से फर्क पड़ा है और युद्ध के समय हमें रुस से सस्ता कच्चा तेल मिलता रहा है जिसे रिफाइन कर हमने यूरोप को भी निर्यात किया है, जिससे हमारा फायदा हुआ है और रुस को भी जब यूरोप को उसका निर्यात बंद होने की दशा में भारत से सहयोग मिला है।
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अरुण कुमार जैन
आई आर एस,
लेखक एवम् साहित्यकार