जाति जनगणना के वितंड़ावाद और सिरफिरी बहस के बीच महात्मा गांधी का यह लेख और भी प्रासंगिक हो जाता है जो उन्होंने 'साप्ताहिक हरिजन' में लिखा था, यह लेख 'मेरे सपनों का भारत में भी संकलित है

 

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मेरे सपनों के भारत में  वर्णाश्रम और जातिपाँति 

     -मोहनदास करमचंद गांधी 

मैं ऐसा मानता हूँ कि हर एक आदमी दुनिया में कुछ स्‍वाभाविक प्रवृत्तियाँ लेकर जन्‍म लेता है। इसी तरह हर एक आदमी की कुछ निश्चित सीमाएँ होती हैं, जिन्‍हें जीतना उसके लिए शक्‍य नहीं होता।

 इन सीमाओं के ही अध्‍ययन और अवलोकन से वर्ण का नियम निष्‍पन्‍न हुआ है। वह अमुक प्रवृत्तियों वाले अमुक लोगों के लिए अलग-अलग कार्यक्षेत्रों की स्‍थापना करता है। ऐसा करके उसने समाज में से अनुचित प्रतिस्‍पर्धा को टाला है। 

वर्ण का नियम आदमियों की अपनी स्‍वाभाविक सीमाएँ तो मानता है, लेकिन वह उनमें ऊँचे और नीचे का भेद नहीं मानता। एक ओर तो वह ऐसी व्‍यवस्‍था करता है कि हर एक को उसके परिश्रम का फल अवश्‍य मिल जाएँ, और दूसरी ओर वह उसे अपने पड़ोसियों पर भार रूप बनने से रोकता है।

 यह ऊँचा नियम आज नीचे गिर गया है और निदां का पात्र बन गया है। लेकिन मेरा विश्‍वास है कि आदर्श समाज-व्‍यवस्‍था का विकास तभी किया जा सकेगा, जब इस नियम के रहस्‍यों को पूरी तरह समझा जाएगा और कार्यान्वित किया जाएगा।

वर्णाश्रम धर्म बताता है कि दुनिया में मनुष्‍य का सच्‍चा लक्ष्‍य क्‍या है। उसका जन्‍म इसलिए नहीं हुआ है कि वह रोज-रोज ज्‍यादा पैसा इकटठा करने के रास्‍ते खोजे और जीविका के नए-नए साधनों की खोज करे। 

उसका जन्‍म तो इसलिए हुआ है कि वह अपनी शक्ति का प्रत्‍येक अणु अपने निर्माता को जानने में लगाएँ। इसलिए वर्णामश्र-धर्म कहता है कि अपने शरीर के निर्वाह के लिए मनुष्‍य अपने पूर्वजों का ही धंधा करें। बस, वर्णाश्रम धर्म का आशय इतना ही है।

वर्ण-व्‍यवस्‍था में समाज की चौमुखी रचना ही मुझे तो असली, कुदरती और जरूरी चीज दीखती है। बेशुमार जातियों और उपजातियों से कभी-कभी कुछ आसान हुई होगी, लेकिन इसमें शक नहीं कि ज्‍यादातर तो जातियों से अड़चन ही पैदा होती है। ऐसी उपजातियाँ जितनी एक हो जाएँ उतना ही उसमें समाज का भला है।

आज तो ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्‍यों और शूद्रों के केवल नाम ही रह गए हैं। वर्ण का मैं जो अर्थ करता हूँ उसकी दृष्टि से देखें, तो वर्णों का पूरा संकर हो गया है और ऐसी हालत में मैं तो यह चाहता हूँ कि सब हिंदू अपने को स्‍वेच्‍छापूर्वक शूद्र कहने लगे। ब्राह्मण-धर्म की सच्‍चाई को उजागर करने और सच्‍चे वर्ण-धर्म को पुन: जीवित करने का यही एक रास्‍ता है।

 

जातपांत

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जातपांत के बारे में मैंने बहुत बार कहा है कि आज के अर्थ में मैं जात-पांत को नहीं मानता। यह समाज का 'फालतू अंग' है और तरक्‍की के रास्‍ते में रुकावट जैसा है। इसी तरह आदमी - आदमी के बीच-ऊँच-नीच का भेद भी मैं नहीं मानता। 

हम सब पूरी तरह बराबर हैं। लेकिन बराबरी आत्‍मा की है, शरीर की नहीं। इसलिए यह मानसिक अवस्‍था की बात है। बराबरी का विचार करने की और उसे जोर देकर जाहिर करने की जरूरत पड़ती है, क्‍योंकि दुनिया में ऊँच-नीच के भारी भेद दिखाई देते है। 

इस बाहर से दिखने वाले ऊँच-नीचपन में से हमें बराबरी पैदा करनी है। कोई भी मनुष्‍य अपने को दूसरे से ऊँचा मानता हैं, तो वह ईश्‍वर और मनुष्‍य दोनों के सामने पाप करता है। इस तरह जातपांत जिस हद तक दरजे का फर्क जाहिर करती है उस हद तक वह बुरी चीज हैं।

लेकिन वर्ण को मैं अवश्‍य मानता हूँ। वर्ण की रचना पीढ़ी-दर-पीढ़ी के धंधों की बुनियादी पर हुई है। मनुष्‍य के चार धंधे सार्वत्रिक हैं विद्यादान करना, दुखी को बचाना, खेती तथा व्‍यापार और शरीर की मेहनत से सेवा। इन्‍हीं को चलाने के लिए चार वर्ण बनाए गए हैं। ये धंधे सारी मानव-जाजि के लिए समान हैं, पर हिंदू धर्म ने उन्‍हें जीवन-धर्म करार देकर उनका उपयोग समाज के संबंधों और आचार-व्‍यवहार के लिए किया है। 

 

गुरुत्‍वाकर्षण के कानून को हम जानें या न जानें, उसका असर तो हम सभी पर होता है। लेकिन वैज्ञानिकों ने उसके भीतर से ऐसी बातें निकाली हैं, जो दुनिया को चौंकाने वाली हैं। इसी तरह हिंदू धर्म ने वर्ण-धर्म की तलाश करके और उसका प्रयोग करके दुनिया को चौंकाया है। जब हिंदू अज्ञान के शिकार हो गए, तब वर्ण के अनुचित उपयोग के कारण अनगिनत जातियाँ बनीं और रोटी-बेटी व्‍यवहार के अनावश्‍यक और हानिकारक बंधन पैदा हो गए। 

वर्ण-धर्म का इन पाबंदियों के साथ कोई नाता नहीं है। अलग-अलग वर्ण के लोग आपस में रोटी-बेटी का व्‍यवहार रख सकते हैं। चरित्र और तंदुरुस्‍ती के खातिर ये बंधन जरूरी हो सकते हैं। लेकिन जो ब्राह्मण शूद्र की लड़की से या शूद्र ब्राह्मण की लड़की से ब्‍याह करता है वह वर्ण-धर्म को नहीं मिटाता।

 

अस्‍पृश्‍यता की बुराई से खीझकर जाति-व्‍यवस्‍था का ही नाश करना उतना ही गलत होगा, जितना कि शरीर में कोई कुरूप वृद्धि हो जाए तो शरीर का या फसल में ज्‍यादा घास-पास उगा हुआ दिखे तो फसल का ही नाश कर डालना है। इसलिए अस्‍पृश्‍यता का नाश तो जरूर करना है।

 संपूर्ण जाति-व्‍यवस्‍था को बचाना हो तो समाज में बढ़ी हुई इस हानिकारक बुराई को दूर करना ही होगा। अस्‍पृश्‍यता जाति-व्‍यवस्‍था की उपज नहीं है, बल्कि उस ऊँच-नीच-भेद की भावना का परिणाम है, जो हिंदू धर्म में घुस गई है और उसे भीतर-ही-भीतर कुतर रही है। इसलिए अस्‍पृश्‍यता के खिलाफ हमारा आक्रमण इस ऊँच-नीच की भावना के खिलाफ ही है। ज्‍यों ही अस्‍पृश्‍यता नष्‍ट होगी जाति-व्‍यवस्‍था स्‍वयं शुद्ध हो जाएगी; यानी मेरे सपने के अनुसार वह चार वर्णों वाली सच्‍ची वर्ण-व्‍यवस्‍था का रूप ले लेगी। 

 

ये चारों वर्ण एक-दूसरे के पूरक और सहायक होंगे, उनमें से कोई किसी से छोटा-बड़ा नहीं होगा; प्रत्‍येक वर्ण हिंदू धर्म के शरीर के पोषण के लिए समान रूप से आवश्‍यक होगा।

आर्थिक दृष्टि से जाति प्रथा का किसी समय बहुत मूल्‍य था। उसके फलस्‍वरूप नई पीढ़ियों को उनके परिवारों में चले आए परंपरागत कला-कौशल की शिक्षा सहज ही मिल जाती थी और स्‍पर्धा का क्षेत्र सीमित बनता था। गरीबी और कंगाली से होने वाली तकलीफ को दूर करने का वह एक उत्‍तम इलाज थी। और पश्चिम में प्रचलित व्‍यापारियों के संघों की संस्‍था के सारे लाभ उसमें भी मिलते थे। 

 

यद्यपि यह कहा जा सकता है कि वह साहस और आविष्‍कार की वृत्ति को बढ़ावा नहीं देती थी, लेकिन हम जानते हैं कि वह उनके आड़े भी नहीं आती थी।

 

इतिहास की दृष्टि से जातिप्रथा को भारतीय समाज की प्रयोग-शाला में किया गया मनुष्‍य का ऐसा प्रयोग कहा जा सकता है, जिसका उद्देश्‍य समाज के विविध वर्गों का पारस्‍परिक अनुकूलन और संयोजन करना था। 

 

यदि हम उसे सफल बना सकें तो दुनिया में आजकल लोभ के कारण जो क्रूर प्रतिस्‍पर्धा और सामाजिक विघटन होता दिखाई देता है, उसके उत्‍तम इलाज के रूप में उसे दुनिया को भेंट में दिया जा सकता है।

 

अंतर-जातीय विवाह और खान-पान

 

वर्णाश्रम में अंतर-जातीय विवाहों या खान-पान का निषेध नहीं है, लेकिन इसमें कोई जोर-जबरदस्‍ती भी नहीं हो सकती। व्‍यक्ति को इस बात का निश्‍चय करने की पूरी छूट मिलनी चाहिए कि वह कहाँ शादी करेगा और कहाँ खाएगा।

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(साभार - मेरे सपनों का भारतः राजकमल प्रकाशन)