किसान आंदोलन ठीक चुनाव के पहले ही क्यों ?
किसान आंदोलन ठीक चुनाव के पहले ही क्यों ?
- मधुकर पवार
पंजाब और हरियाणा के किसानों द्वारा अपनी मांगों को मनवाने के लिये किये जा रहे आंदोलन को लेकर पूरे देश के किसान क्या सोचते हैं, इस पर अभी तक देश के अन्य भागों के किसान संगठनों के अधिकारिक रूप से आंदोलन के समर्थन में कोई बयान जारी नहीं हुए हैं। इसका तो यही अर्थ लगाया जा सकता है कि यह आंदोलन केवल पंजाब और हरियाणा के किसानों का ही है और आंदोलन करने वाले किसान यह मानकर आंदोलन कर रहे हैं कि वे पूरे देश के किसानों के हित के लिये आंदोलन कर रहे हैं। आंदोलन कर रहे किसानों ने सरकार के समक्ष जो मांगे रखी हैं उनमें मुख्य रूप से न्यूनतम समर्थन मूल्य का कानून बनाना जिसके तहत सभी कृषि उपज को समर्थन मूल्य के दायरे में लाना, किसानों के ऊपर सरकारी और गैर सरकारी कर्ज की माफी तथा 60 वर्ष से अधिक आयु के किसानों को 10,000 हजार रूपये महीने पेंशन प्रमुख मांगे हैं। इन मांगों को लेकर सरकार किसानों के बीच तीन बैठकें हो चुकी हैं लेकिन ये बैठकें बेनतीजा ही रही हैं। किसानों की अन्य मांगों में साल 2021-22 के किसान आंदोलन में जिन किसानों पर मुकदमें दर्ज किए गए थे, उन्हें रद्द करना, आंदोलन के दौरान जिन किसानों की मौत हुई थी, उनके परिवार को मुआवजा तथा एक सदस्य को नौकरी देना, लखीमपुर खीरी हिंसा के पीड़ितों को न्याय और परिवार के एक सदस्य को नौकरी देना, कृषि व दुग्ध उत्पादों, फलों, सब्जियों और मांस पर आयात शुल्क कम करने के लिए भत्ता बढ़ाना और कीटनाशक, बीज और उर्वरक अधिनियम में संशोधन करके कपास सहित सभी फसलों के बीजों की गुणवत्ता में सुधार करने के साथ स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने की मांग शामिल है। सरकार के लिये अधिकांश मांगे मान लेने में शायद कोई परेशानी नहीं है लेकिन सबसे ज्यादा मशक्कत तो एम.एस.पी. का कानून बनाने, पेंशन देने और कर्ज माफी की मांग को पूरा करने में होगी।
जहां तक स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट के तहत न्यूनतम समर्थन मूल्य को लागू करना है तो रिपोर्ट में सुझाये गये C2+50% फार्मुला को देश के सभी राज्यों लिये समान रूप से लागू करने में व्यवहारिक कठिनाई आ सकती है। इस फार्मुला में कृषि भूमि के किराये को जोड़ने का प्रावधान है। यदि यह फार्मुला लागू किया जाता है तो सभी राज्यों के लिये अलग – अलग न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करने पड़ सकते हैं। इससे कुछ राज्यों के किसानों को अधिक तो कहीं अभी लागू एम.एस.पी. से भी कम दाम मिलेंगे। मुम्बई या दिल्ली के आसपास की जमीन का किराया ओडिसा या मणिपुर आदि राज्यों में कृषि भूमि की तुलना में काफी अधिक होगा। एम.एस.पी. की सिफारिश करने वाली एजेंसी कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सी.ए.पी.सी.) के आंकड़ों से पता चलता है कि पंजाब और हरियाणा के किसानों को अभी जो एम.एस.पी. मिल रहा है वह स्वामीनाथन आयोग के फार्मुले से अधिक है। समाचार पत्र हिंदुस्तान में प्रकाशित समाचार में उदाहरण देते हुये बताया गया है कि पंजाब में C2+50% फार्मुला लागू करने पर लागत 1503 रूपये प्रति क्विंटल आती है जबकि अभी गेंहू का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2275 रूपये प्रति क्विंटल है। यह व्यापक लागत (C2) या स्वामीनाथन आयोग के फार्मुले से 51% अधिक है।
कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष श्री राहुल गांधी ने अपनी भारत जोड़ो न्याय यात्रा के दौरान हाल ही में घोषणा की है कि केंद्र में उनकी सरकार आती है तो वे एम.एस.पी. का कानून बनाकर स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को पूरी तरह लागू करेंगे। राहुल गांघी से यह प्रश्न पूछा जाना चाहिये कि जब केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व में दस साल तक सरकार रही है तब इस रिपोर्ट को क्यों लागू नहीं किया ? इसका उनके पास शायद कोई जवाब नहीं होगा।
आंदोलनरत किसान सरकारी और गैर सरकारी कर्ज को पूरी तरह माफ करने की मांग कर रहे हैं। जो किसान कर्ज माफी की मांग कर रहे हैं उनसे पूरे कर्ज का विवरण के साथ उनकी चल और अचल सम्पत्ति की भी जानकारी मांगनी चाहिये ताकि पता चल सके कि क्या वाकई उनका कर्ज माफ किया जा सकता है ? यदि देश के किसानों सहित सभी नागरिकों की सम्पत्ति को आधार से जोड़ दिया जाये तो सभी जानकारी एक साथ प्राप्त हो जाएगी जिससे उनकी आर्थिक स्थिति का पता चल सकेगा। यह भी देखा जा रहा है कि राजनीतिक दल कृषि ऋण माफ करने की बात करते ही रहते हैं इसलिए किसान भी ऋण लेकर वापस नहीं करते हैं, यह सोचकर कि सरकार तो कर्ज माफ कर ही देगी।
दरअसल सभी राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव जीतने के लिये ऐसी अनेक घोषणायें की जाती हैं जिन्हें पूरा करने में केंद्र व राज्य की आय का बड़ा हिस्सा बांटने में ही खर्च हो जाता है। ऐसी स्थिति में सरकारों के पास और कर्ज लेने के अलावा और कोई मार्ग नहीं बचता है। इस प्रवृत्ति से विकास और निर्माण कार्य प्रभावित हो रहे हैं। ऐसी परिस्थितियों में किसानों की कर्ज माफी की मांग को जायज नहीं ठहराया जा सकता है। हां, ये हो सकता है कि प्राकृतिक आपदा के समय कर्ज का ब्याज माफ किया जाना चाहिये। वैसे फसल बीमा से इसकी भरपाई की जाती है। फसल बीमा को और कारगर बनाने की दिशा में किसान संगठनों को मांग करनी चाहिये।
किसानों ने 60 वर्ष की आयु के बाद हर माह दस हजार रूपये पेंशन की मांग भी की है जो कि पूरी तरह अव्यवहारिक है। उन्होंने पेंशन की पात्रता पर कोई बात नहीं की है। आंदोलन कर रहे किसान ट्रेक्टर और चौपहिया वाहनों से आंदोलन स्थल पर आये हैं। क्या ऐसे सक्षम किसानों को भी पेंशन की जरूरत है। शायद नहीं, लेकिन सरकार पर दबाव बनाने के लिये अनेक अनुचित मांगे की जा रही हैं जिन्हें शायद कोई भी सरकार नहीं मान सकती। यदि पेंशन की मांग को माना भी जाता है तो इसके लिये कुछ मापदंड निर्धारित करने की आवश्यकता है।
अब प्रश्न यह भी वाजिब है कि यह आंदोलन ठीक चुनाव के पहले ही क्यों आयोजित किया है? क्या यह राजनीति से प्रेरित है या कुछ विपक्षी दल इस आंदोलन को हवा दे रहे हैं। मीडिया में जिस तरह की तस्वीरें सामने आ रही हैं उनसे प्रतीत होता है कि आंदोलन की आड़ में देश की एकता और अखंडता के साथ खिलवाड़ करने की कोशिश तो नहीं का जा रही है? किसान आंदोलन के पीछे विदेशी ताकते भी हो सकती हैं। यह तो जांच का विषय हो सकता है लेकिन सबसे महत्वपूर्ण सवाल यही है कि क्या किसान आंदोलन चुनावी मुद्दा बनने जा रहा है ? यदि ऐसा होता है तो निश्चित ही इससे सत्तारूढ़ दल के लिये मुश्किलें पैदा हो सकती हैं। इसलिये सरकार भी इस मुद्दे पर शीघ्र ही समाधान भी चाह रही है लेकिन लगता है, जिस तैयारी से किसान आये हैं, जल्दी मानने वाले नहीं हैं। कहीं वे भी यही चाह रहे हों कि यह मुद्दा चुनाव तक किसी तरह खींचता रहे ताकि इसका लाभ विपक्षी दलों को मिले। खासतौर से आम आदमी पार्टी के लिये यह तो वरदान ही सिद्ध होगा क्योंकि ई.डी. के सम्मन से मुख्यमंत्री केजरीवाल परेशान हैं तो किसान आंदोलन से केंद्र सरकार भी कम परेशान नहीं है। लगता अब किसान आंदोलन के जरिये शह – मात की खेल चल रहा है। इस खेल में किसकी जीत होती है और किसकी हार.... यह तो अब चुनाव परिणाम से ही पता चलेगा।
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