जाकिर, जन्नत और गालिब

  • विजय मनोहर तिवारी

इस्लाम तो पैगंबर हजरत मोहम्मद के साथ आया। वह भी तुरंत नहीं। धरती पर उनके आने के चालीसेक साल बाद ज्ञान उतरा। तो मोहम्मद साहब के चचा, उनके पिता या माता, जो इस्लाम के अवतरण के पहले ही चल बसे, वे कहाँ गए होंगे? जन्नत या जहन्नुम? एक अरब दीनार का यह जोरदार सवाल पाकिस्तान में जाकिर नाइक से पूछा गया है और जवाब सुनकर सबका दिमाग हिला हुआ है

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जन्नत और जहन्नुम इस्लाम की छाया में ऐसे ख्वाब हैं, जो दिन-रात देखे जाते हैं। सोते, जागते, उठते, बैठते, लिखते, पढ़ते और लिखना-पढ़ना भी क्या है-जन्नत के सिवा ? इस्लाम के दायरे में ये सवाल बहुत महत्व के हैं कि जन्नत कौन जाएगा, कैसे जाएगा, जन्नत में सीट रिजर्व कैसे होगी, जन्नत में क्या है? जहन्नुम में क्या है, किस तापमान की आग है, जहाँ लोगों को तलवों से जलाया जाएगा और उनका दिमाग उबलेगा। इस्लाम पर अमल करने वालों के लिए ये सवाल जीते-जी बहुत अहमियत रखते हैं। इस्लामी तालीम टिकी ही इन्हीं सवालों पर है। आखिरत, कयामत और जन्नत-जहन्नुम।

पाकिस्तान के स्टेट गेस्ट जाकिर नाइक ने उस भीड़ रही मजहबी सभा में दो टूक फरमाया कि मोहम्मद पैगंबर के वालिदेन जहन्नुम में ही गए, क्योंकि उन्होंने कलमा नहीं पढ़ा था। कलमा इसलिए नहीं पढ़ पाए थे कि तब कलमा आया ही नहीं था। यानी जो इस्लाम कुबूल करने के पहले मर गए, वे नॉन स्टॉप जहन्नुम में पहुँचे हैं। भले ही वे पैगंबर के परिजन ही क्यों न हों। (इस्लामी गणित के इस समीकरण से खुद जाकिर के महाराष्ट्रीयन हिंदू पुरखे जहन्नुम में हैं। अब यह पाकिस्तान के लोग कह रहे हैं!)

मोटे तौर पर इस्लाम के विद्वान कहे जाने वाले मौलवियों की दवा के परचे पर यही लिखा होता है कि जो इस्लाम में यकीन लाएगा वह जन्नत का हकदार है। इस्लाम पर यकीन का एक ही सूत्र है-एक अल्लाह के सिवा कोई पूजनीय नहीं है और मोहम्मद उसके पैगंबर हैं। पैगंबर ही नहीं हैं, वही आखिरी पैगंबर हैं। इसी बात को अरबी भाषा में उल्टा यानी दाएँ से बाएँ पढ़ेंगे तो यही कलमा है-ला इलाह इलल्लाह मोहम्मदुर्रसूलल्लाह। इसीलिए इस्लाम कुबूल कराने के लिए सबसे पहला काम यही कलमा पढ़ना है। बस हो गया काम। पढ़ने और पढ़ाने वाले की जन्नत पक्की!

कड़क चेतावनी यह है कि जिसने कलमा नहीं पढ़ा, एक अल्लाह को ही पूजनीय नहीं माना या एक के अलावा दूसरे देवी-देवता भी पकड़कर रखा, मोहम्मद की पैगंबरी को स्वीकार न किया तो जहन्नुम की आग उसके लिए ही रिजर्व है। वह काफिर है। वह मुशरिक है। वह सही रास्ते पर नहीं है इसलिए इज्जत के काबिल नहीं है। जीने के काबिल नहीं है। फिर उसे सही रास्ते पर लाने के "अनेक प्रावधान' हैं और फिर भी रास्ते पर न आए तो उसे ठिकाने लगाने के "अनेक और प्रावधान' सुनिश्चित हैं। मदरसों की तालीम केवल जन्नत और जहन्नुम की इन्हीं ठोस और अपरिवर्तनीय अवधारणाओं पर टिकी है, जहाँ बाल्यकाल से इस्लाम के वैज्ञानिक तैयार होते हैं।

जिस किसी ने किसी गैर मुस्लिम को किसी भी तरीके से कलमा भर पढ़ा दिया, उसने जन्नत की तरफ अपना एक कदम आगे बढ़ा दिया। इसलिए दुनिया भर में एक व्यापक होड़ है और सब अपने एक कदम ऐन-केन प्रकारेण एक ही दिशा में आगे बढ़ा रहे हैं। ऐसी गति और प्रगतिशीलता किसी और मजहब या रिलीजन में नहीं है। भारतीय मूल के धर्म में तो बिल्कुल ही नहीं है। 

जो संगठन के स्तर पर बड़े पैमाने पर यह काम कर सकता है, वह वैसा कर रहा है। जो इस काम में दौलत से मदद कर सकता है, वह वैसा कर रहा है। जो किसी पद पर बैठकर दीन का रास्ता साफ कर सकता है, वह वैसा कर रहा है। जो कानून में गलियाँ निकालकर हाथ बटा सकता है, वह वैसा कर रहा है। जो यह सब नहीं सकता, नाम या पहचान बदलकर किसी गैर मुस्लिम बेवकूफ लड़की को बहला-फुसलाकर कलमा पढ़ाने ला सकता है, वह वैसा कर रहा है। जिसके बूते में यह भी नहीं है, बम बाँधकर कहीं फट सकता है, वह वैसा कर रहा है। 

सोते-जागते इसी एक सूत्रीय कार्यक्रम में पूरी ऊर्जा खपी हुई है। दीन के रास्ते पर "वैसा करने वालों' की इफरात कल्पना के परे है। जन्नत में हूरों के हसीन ख्वाब न ढँग से खुद को जीने देते, न दूसरों को। जहन्नुम का डर जन्नत की तरफ धकेलता है। अल्लाह के बताए रास्ते पर लाता है। अल्लाह ने रास्ता एक फरिश्ते को बताया था। फरिश्ते ने अल्लाह की डाक पहुँचाने के लिए धरती पर अपने समय के एक सर्वाधिक योग्य तृतीय पक्ष को चुना। इसलिए मूल प्रिंट की फोटो कॉपी एक के हाथ से दूसरे तक पहुँची, दूसरा धरती पर किसी पहाड़ पर उतरा और उसने तीसरे को दी। तीसरे के हाथों से वह महाज्ञान बाकी दुनिया को पता चला। 

संकट यह खड़ा हुआ कि वह तीसरा महापुरुष लिखना-पढ़ना जानता नहीं था इसलिए ऊपर से आए हुए मौखिक कथनों को उसने किसी और से लिखवाया। (सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के अनुसार पैगंबर के ढाई सौ साल बाद लिखी गई बातें आज के संदर्भ में फिट नहीं हैं। ) दीन के इस आसान दर्शन में सबसे टॉप टारगेट जन्नत का है। जन्नत का निर्णय करने वाला अल्लाह है, केवल अल्लाह, जिसके साथ कोई पूजा के काबिल नहीं है, काफिर कम्बख्त जाएँ तो जाएँ कहाँ? क्या करामात है कि सारे रास्ते एक ही तरफ मोड़ दिए गए हैं। यह करामात नहीं, यही कयामत है!

जन्नत का निर्णय आखिरत के दिन होना है। आखिरत के दिन कब्रों से मुर्दे उठाए जाएंगे और उनके हिसाब होंगे। इसलिए अपनी आखिरत को सोते-जागते नजर के सामने रखो कि उस दिन अल्लाह जन्नत का टिकट आपको थमा देगा। मनुष्य जीवन में आकर लोक-परलोक सुधारने का इतना "सस्ता ऑफर' और कहीं नहीं है। लोक की तो चिंता ही नहीं है। यह दुनिया उसके लिए बनी ही नहीं है, जिसे जन्नत चाहिए। इस दुनिया की जो सोचे, वही काफिर है, भटका हुआ है और उसे ही सही रास्ते पर लाना है। सही रास्ता जन्नत का है, जन्नत के लिए अल्लाह का है, अल्लाह के लिए पैगंबर का है। इधर-उधर देखना नहीं है। बात खत्म। दीन के मामले में अकल में दखल नहीं होना!

जाकिर नाइक के पाकिस्तान दौरे पर एक पूरी किताब बनती है, जो आखिरी किताब नहीं होगी। इस्लाम की जो व्याख्याएँ उन्होंने सूरा नंबर और आयत नंबर के संदर्भों के साथ रटे हुए अंदाज में दी हैं, मजहब में सौ डिग्री पर उबलते एक मुल्क में सीटियाँ बजा दी हैं। जाकिर का कितना भी मजाक उड़ाया जाए, उसने वही कहा है, जो लिखा है। वह चाहता तो दाएँ-बाएँ घुमा देता। एक लड़की ने पूछा कि कुरान में यहूदी के साथ जिल्लत और मौत पर स्टांप लगा दिया गया है लेकिन वे तो दुनिया पर राज कर रहे हैं, ऐसा क्यों है

जाकिर का जवाब है कि लोग इस्लाम और कुरान से दूर हट रहे हैं, इसलिए यहूदी ताकतवर हैं। हमें आखिरत और जन्नत के लिए ही सोचना चाहिए। वही अल्लाह का रास्ता है। वही हकीकत है। यह दुनिया काफिरों के लिए है, हमारी दुनिया मौत के बाद है! 

एक दानिशमंद की टिप्पणी है कि जब संकट के मूल कारण को ही एकमात्र समाधान के रूप में पेश किया जाए तो यह ऐसा ही है कि अपने ही हाथों अपने गले में रस्सी का कसाव बढ़ा दिया जाए।

 

जिस समय इंटरनेट के माध्यम से जाकिर का हर बयान और उसकी चीरफाड़ दुनिया भर में चर्चा का विषय बना, ठीक उसी समय इस्लाम की एक और प्रभावी प्रयोगशाला से मजहबी वैज्ञानिकों ने दुनिया का ध्यान अपनी ताजा शोध की ओर खींचा है। अफगानिस्तान में तालिबान के लीडरों ने घर के बाहर महिलाओं की आपसी बातचीत पर भी रोक लगा दी है। उनकी आवाज सुनाई नहीं देनी चाहिए। वे जिम, पार्क और ब्यूटी पार्लर में पहले ही नहीं जा सकती थीं। गाने-बजाने से दूर कर दी गई थीं। वे ऊपर से नीचे तक परदे में ढकी थीं। स्कूल-कॉलेज में पाबंदियाँ लाद दी गई थीं। अब उनकी आवाज को "अवरा' कहा गया है, जिसका अर्थ है कि इसे ढका जाए, सबके सामने सुनाई न दे! अवरा, एक नई खोज है।

मजहब की दार्शनिक व्याख्याओं के इस गरमागरम दौर में एक लेबनान भी है, एक ईरान भी है और एक अदद गाजा पट्टी भी है, जहाँ नसरल्ला और याह्या सिनवार जैसे दूरदृष्टा अभी-अभी जन्नत पहुँचाए गए हैं। जाकिर नाइक बेहतर बताएंगे ये हजरातव कयामत के दिन आखिरत के बाद जन्नत में आगे जा रहे होंगे या अभी जा डटे हैं? अगर इनके चिथड़े यहीं उड़ गए तो जन्नत में वे किस आकार में साबुत या टूटे-फूटे पहुँचेंगे या किसी आसमानी हकीम के इलाज के बाद उन्हें ठीक किया जाएगा और तब हूरें अलॉट होंगी?

दीन की ऐसी तरह-तरह की दार्शनिक खुशबू से महकते आज के बारूदी दौर में मिर्जा गालिब सबसे ज्यादा याद आते हैं, जिन्होंने 186 साल पहले फरमाया था- "हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन, दिल के खुश रखने को गालिब ये ख्याल अच्छा है!'

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वरिष्ठ पत्रकार श्री विजय मनोहर तिवारी तीन दशक से अधिक समय तक प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में सक्रिय रहे. मध्यप्रदेश में सूचना आयुक्त के पद पर भी अपनी प्रभावी सेवाएं दीं. वर्तमान में इतिहास, समसामयिक और ज्वलंत मुद्दों पर स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं.