विज्ञापन आधारित औषधि और स्वयंभू उपचार खतरनाक हो सकता है

  • डा. अनिल भदोरिया  

 

व्यवसाय शास्त्र के चलन में कहा जाता है कि यदि आपका व्यवसाय नहीं चल रहा है तो विज्ञापन कीजिए और यदि आपका व्यवसाय अच्छा चल रहा है तो विज्ञापन कीजिए यानी कमोबेश हर स्थिति में प्रिंट ओर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के माध्यम से, किसी उत्पाद या सेवा का विज्ञापन आपके मस्तिष्क में बलपूर्वक स्थान पाने को तैयार है भले ही आपकी उसे विज्ञापन के प्रति कोई रुचि हो अथवा ना हो।

 

विज्ञापन, विक्रय कला का एक नियंत्रित जनसंचार माध्यम है जिसके द्वारा उपभोक्ता को दृश्य एवं श्रव्य सूचना इस उद्देश्य से प्रदान की जाती है कि वह विज्ञापनकर्ता की इच्छा से विचार, सहमति, कार्य अथवा व्यवहार करने लगे जो आज विकास का पर्याय बन गया है।

 

परंतु यहाँ ध्यानाकर्षण है कि मानव स्वास्थ्य में विज्ञापन की आवृत्ति पिछले कुछ दशकों में कई गुना बढ़ गई है और जिसने नागरिकों के मानस पटल पर बुरा प्रभाव भी डाला है।

 

मानव शरीर, प्रकृति की जटिलतम रचनाओं में से एक है जो चोट, रोग, दर्द, एलर्जी, असामान्य कोशिका वृद्धि और संक्रमण से निरंतर साक्षात्कार करता रहता है। विकास की अंधाधुंध दौड़ के चलते जीवनशैली रोगों का भी समावेश हो गया है और अब भारत को मोटापा, मधुमेह, उच्च रक्तचाप का केंद्र बिंदु माना जाता है। बाजार की संभावनाओं को देखते हुए भ्रामक और लुभावने विज्ञापनों का भी आकर्षक दौर चल पड़ा है जिसके चलते आम नागरिक अपने चिकित्सक से सलाह न लेते हुए समाचार पत्रों, मासिक या साप्ताहिक पत्रिकाओं, टेलीविज़न और सोशल मीडिया पर प्रसारित विज्ञापन आधारित उत्पाद या सेवा से मोहित हो शीघ्र शिकार हो जाते हैं।

 

उदाहरण के लिए मोटापा कम करने के अनन्नास के रस की गोली के नामचीन पत्रिकाओं में हिन्दी और अंग्रेज़ी में विज्ञापन, मिर्गी के शर्तिया उपचार की दवाई के अख़बार में फुल पेज विज्ञापन, सेक्स संबंधी लिंग वर्धक या संभोग समयवर्धक तेल या गोली के विज्ञापन, मधुमेह को जड़ से ख़त्म कर देने वाली औषधी और जोड़ों के दर्द के तेल कैप्सूल लगातार आपके मानसपटल पर उपस्थिति अंकित कराते रहते हैं।

आपकी दृष्टि भी इस प्रकार के विज्ञापनों में आई होगी जो न्यायसंगत दावों, गारंटी और पैसा वापसी के आकर्षक योजनाओं के माध्यम से मछली को फंसाने के लिए विज्ञापन रूपी मोहक चारे से फंसा लेते हैं। आश्चर्य इस बात का है कि भारत में प्रचलित चिकित्सा और स्वास्थ्य लाभ की जितनी विधाएँ प्रचलित हैं इनमें से एलोपैथी याने आधुनिक चिकित्सा विज्ञान पद्धति को छोड़कर अन्य प्रत्येक चिकित्सा विधा द्वारा विज्ञापन उद्योग का प्रचुर उपयोग किया जाता है। एलोपैथी की एकमात्र चिकित्सा विधा ऐसी है जो विधि ओर विज्ञान सम्मत होते हुए शासन निर्धारित नियमावली का बंधनकारी पालन करते हुए आधुनिक चिकित्सा के संबंध में औषधि, सेवा के दावों, गारंटी इत्यादि का किसी भी प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर प्रचार प्रसार नहीं करती है। परंतु ऐसी ही स्थिति अन्य चिकित्सा विधाओं के साथ नहीं है। आयुर्वेद, होम्यो, सिद्धा, यूनानी और प्राकृतिक चिकित्सा विधाओं के साधकों द्वारा जटिल और असाध्य रोगों के रामबाण उपचार संबंध में औषधीय उत्पादों के विज्ञापन निरंतर प्रकाशित किए जाते हैं जो बगैर चिकित्सकीय वैज्ञानिक सलाह के ही ओवर द काउंटर याने बिना उपचार पत्रक के सीधे दवा विक्रेता से क्रय कर रोगी द्वारा प्रयोग में आरम्भ कर दिए जाते हैं। हाल ही में राष्ट्रीय स्तर पर एक समाचार पत्र में प्रकाशित, विज्ञापन में तो सभी रोगों की जड़ में एलोपैथी की वैज्ञानिक उपचार विधा को ज़िम्मेदार ठहरा दिया गया है। नाडीकर्म के आयुर्वेद चिकित्सक के द्वारा प्रकाशित फुल पेज विज्ञापन में अन्य चिकित्सा विधाओं की रेखा छोटी करते हुए पंचलाइन प्रकाशित की थी कि समस्या रोग नहीं, डॉक्टर है   इसलिए इसे बदलिए. आयुर्वेद और पंचकर्म अपनाइए 

 

 

 

 

कदाचित् आपको हास्यास्पद लगे परंतु बड़ी संख्या में देश के नागरिक इस प्रकार के विज्ञापनों से भ्रमित हो जाते हैं। मेरे स्वयं के पिता मधुमेह के जड़ से ख़तम करने वाले विज्ञापन से भ्रमित हो उपचार के लिये प्रतिदिन कॉफ़ी पीने लगे और जब १५ दिनों के बाद पेट में अम्लता की शिकायत लेकर बताये तो समझ आया कि अख़बार में प्रकाशित एक स्वयंभू उपचारक की प्रश्नोत्तरी से भ्रमित हो वे मधुमेह को जड़ से समाप्त करने को स्वयंभू चिकित्सक हो गये थे। आश्चर्यजनक एक घटनाक्रम में एक साथी चिकित्सक अपने घर की चिक-चिक से परेशान होकर पत्नी के मोटापे का गारंटी से इलाज के लिए 3500 रुपए के अन्नानास के कैप्सूल मँगवा कर खिलवा दिये। पश्चात मोटापे की बैरिएट्रिक सर्जरी करवा कर स्वास्थ्य लाभ पाए। कहने का उद्देश्य और तात्पर्य यह है कि चिकित्सा विज्ञान के समुचित साधनों को भी विज्ञापन से लोहा लेना पड़ता है जबकि मानव स्वास्थ्य से सम्बन्धी उपचार की कोई भी पद्धति सौ प्रतिशत की गारंटी का दावा कर ही नहीं सकती है। मानव शरीर का उपचार-विज्ञान, अनिश्चितताओं ओर संभावनाओं का घालमेल है जो शरीर की प्रतिरोधक क्षमता अनुसार स्वस्थ होने की स्थिति को उपलब्ध होता है। स्वास्थ्य की रक्षा और उत्तम शरीर की प्राप्ति के लिए विज्ञापन आधारित उपचार के उत्पादों से भ्रमित होकर स्वयं का चिकित्सक बनकर ओवर द काउंटर औषधि प्राप्त करना शुद्धत: अपने जीवन से खिलवाड़ कुछ इस प्रकार करना हैं कि उपयोगकर्ता को होने वाले नुकसान का पता भी नहीं पड़ता है। कुछ पुरानी पैथी की औषधियों की भस्म में उच्च स्तरीय रासायनिक तत्व यानी मेटल भी उपस्थित होते हैं जो लीवर तथा किडनी को नुकसान पहुंचा सकते हैं और अवैज्ञानिक तौर से इस प्रकार प्राप्त किया गया उपचार न केवल शरीर के अंगों को खराब कर सकता है और जब तक होने वाले नुकसान का पता चले तो वह नुकसान स्थाई रूप से स्थापित भी हो सकता है। अतः नागरिक हितों में विज्ञापन आधारित औषधीय की सेवन, लेपन और नीम हकीम वैध्य के द्वारा उपचार की अवैज्ञानिक प्रयोगशाला में जाकर अपने शरीर के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करना बुद्धिमानी नहीं है। हालांकि इन उत्पादों के विज्ञापन सदैव प्रकाशित होते रहेंगे, परन्तु समाज की इस अवधारणा को विकसित करना ही होगा कि वे किसी भी विज्ञापन से भ्रमित होकर अपने अनमोल शरीर के साथ खिलवाड़ न होने दें।

 

यदि आप किसी विज्ञापन से किसी उत्पाद विशेष के प्रति प्रेरित होते हैं तो भी अपने परिवार चिकित्सक अथवा अपने रोग-विशेषज्ञ से परामर्श अवश्य लें जो वैज्ञानिक रूप से प्रशिक्षित होकर सही सलाह देने के लिए नियमबद्ध हैं और वह आपको सही मार्ग भी प्रशस्त करेंगे। यदि विज्ञापन के आधार पर ही रोग का जड़-उन्मूलक उपचार होने लगा होता तो आज भारत सरकार बड़ी संख्या में मेडिकल कॉलेज स्थापित नहीं कर रही होती और विज्ञापन पर ही सब उपचार हो जाया करता। समय की मांग है कि नागरिक, विज्ञापन आधारित औषधीय उत्पादों का सेवन करने से पहले संज्ञान लें और अपने पर्याप्त रूप से प्रशिक्षित डॉक्टर से सलाह अवश्य प्राप्त करें।

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डा. अनिल भदौरिया एम.बी.बी.एस. (एम.जी.एम. मेडिकल कॉलेज, इंदौर ), एम.पी. टी. (स्पोर्ट्स), एम.बी.ए. सहायक संचालक, कर्मचारी राज्य बीमा सेवाएँ, श्रम विभाग, मध्य प्रदेश शासन में सेवारत है तथा मुख्यालय इंदौर में पदस्थ हैं 

डॉ भदौरिया की सेक्स एजुकेशन (पीकॉक पब्लिकेशन, नई दिल्ली) से पुसतक प्रकाशित हो चुकी है वे नई दुनिया, दैनिक भास्कर, अहा दुनिया, पत्रिका, जीमा (कलकत्ता) में अपने स्वास्थ्यपरक, यात्रा वृतांत, कविताओं व व्यंग्य आधारित आलेखों से प्रकाशित होते रहे हैं इण्डियन मेडिकल एसोसिएशन की इंदौर शाखा के अध्यक्ष भी रहे हैं तथा राष्ट्रीय स्तर पर भी विभिन्न पदों पर कार्य करते रहे हैं