मालवा की समृद्ध भोजन परंपरा

 

  • डॉ बालाराम परमार 'हॅंसमुख'

 

कहावत है कि "भूख बापड़ी खाए सुखी पापड़ी", किंतु मालवा के विषय में भूख जैसा कुछ नही, क्योंकि मालवा अंचल प्रारंभ से ही पोषण और भोजन की अभिरुचि से सम्पन्न रहा है। मानव का खानपान, रीति-रिवाज, तीज-त्यौहार और जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कार वहां की जलवायु, भूमि की बनावट तथा कृषि पद्धति निर्धारित करती है। मालवा एक पठारी भू-भाग है और यहां प्रमुख रूप से काली मिट्टी पाई जाती है जो कि मोटे अनाज के लिए विश्व प्रसिद्ध है। मालवा क्षेत्र में प्रमुख रूप से मक्का, ज्वार, बाजरा, तूवर, मूंग, उड़द, चंवला, साल (शालि या धान चावल), गेहूँ, चना, मूंगफली, सरसों आदि फसलों को सदियों से उगाया जा रहा है। फलत: मालवा के घर-घर में इन्ही खाद्य पदार्थों से स्वादिष्ट और पोषणयुक्त व्यंजन बनाए जाते है।

मालवा में मुख्य रूप से दाल-बाटी-चूरमा, दाल-बाफला-लड्डू, दाल-पानिया, मक्का, ज्वार, बाजरे और गेहूं की रोटी, गजकड़ा (मोटी रोटी), पूरी (तेल में तलकर बनी)गेहूँ-चने की मिस्सी रोटी आदि खाने का प्रचलन है। यहां के लोग रोटी, बाटी, बाफले आदि पर ढेर सारा शुद्ध देशी घी डालकर भोजन करते हैं। दाल बाटी के प्रचलन का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि यहां के युवाओं ने इसको लेकर एक उद्घोष ही बना दिया है, "दाल-बाटी-चूरमा, हम मालवा के सूरमा"। मालवा में मक्का के भुट्टे, ज्वार के डोडे, गेहूं की उम्बीं, गीले चने के होले, सुखी मक्का की धानी, सूखे चने के भूंगडे और लहसुन प्याज को आग में सेककर भी खाया जाता  है। मालवा में अनाज और दालों को पानी में उबालकर उनकी घुघरी बनाकर खाने की परंपरा भी प्रचलित है। 70 के दशक के पहले ब्याव शादियों में ज्वार की गोगरी बनाकर ही घर-घर बांटी जाती थी। ज्वार-बाजरा-मक्का की राबड़ी और गेहूँ के आटे और चने के बेसन से तवे पर तले हुए रेलमे (चिकारे) भी मालवा के पारंपरिक व्यंजन है। भुट्टे (मक्का) का कीस, लड्डू और कचोरी की प्रसिद्ध इतनी ज्यादा है कि हाल ही में हुए प्रवासी भारतीय सम्मेलन में 68 देशों के मेहमानों  तथा राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू को भोजन में भुट्टे का कीस परोसा गया।

 

संभवतः मालवांचल में बेसन का प्रयोग सबसे ज्यादा किया जाता है, बेसन गट्टे, भजिये, सेव, पपड़ी, आलू बड़ा, बूंदी के लड्डू, बेसन चक्की, कड़ी, खाटा ओर बेसन की सब्जी, पापड़ इत्यादि बनाने में भी उपयोग किया जाता है। इसके साथ ही चने, मूंग, ज्वार, चावल, उड़द, गेहूं आदि से पापड़ ओर लड्डू भी बनाए जाते है। भोजन के साथ पत्थर के सिलबट्टे पर बनी हरे धनिए, टमाटर, अमरूद, कच्चा आम, कबीट आदि की चटनी खाई जाती है जो स्वादिष्ट तो होती ही है, भोजन को पचाने में सहायक भी होती है।

 

मालवा क्षेत्र में प्रकृति माता की कृपा से प्रचुर मात्रा में हरी साग भाजी उपलब्ध है। अतः यहां मेथी, पालक, खाटी भाजी, चन्दरोई, चीलभाजी,  अफीम की भाजी आदि हरी पत्तेदार साग और फूलगोभी, पत्ता गोभी, कद्दू, कटेर, किकोड़े, टिंडोरी, भिंडी, गिलकी, तरोई, टिंडा, मूली, आलू, परवल, करेला आदि सब्जियों का नियमित सेवन किया जाता है। भोजन में उड़द, मूंग, तूवर, चँवला, मसूर आदि दालें और दूध, दही, छाछ, छाछ की कड़ी और खाटा भी नियमित खाया जाने वाला व्यंजन है। लापसी (मीठी थूली), हलवा, मालपुए, जलेबी, मोतीचूर के लड्डू, चूरमा, खीर, सीरा आदि मालवा की प्रसिद्ध पारंपरिक मिठाईयां है, जबकि दूध से निर्मित मिठाईयों का प्रचलन भी अब बहुत बढ़ गया है।

 

कुल मिलाकर मालवा में भोजन खाने-खिलाने की एक समृद्ध परंपरा रही है। यहां के समाज ने अपने भोजन में स्वाद के साथ-साथ पोषण को भी सम्मिलित किया गया। मालवा क्षेत्र में सामान्यतः स्त्रियों द्वारा भोजना बनाया जाता है और वे अपनी रसोई की स्वच्छता का भी विशेष ध्यान रखती हैं। घर में सबको भोजन करवाकर अंत में स्वयं भोजन करती है। हालांकि समय, परिस्थिति तथा वैज्ञानिक प्रौद्योगिक उन्नति इस पारंपरिक भोजन पद्धति में थोड़ा बहुत परिवर्तन करती रहती हैं। मोटे अनाजों को छोड़कर लगभग 80% लोग अब सिर्फ गेहूं खा रहे हैं, इसी प्रकार मूंगफली, तिल, सरसो आदि के स्थान पर सोयाबीन के तेल का सेवन किया जाने लगा है। मिट्टी के बर्तनों के स्थान पर प्रेशर  कुकर, माइक्रोवेव, इलेक्ट्रिक अवन आदि ने ले लिया है जिनका प्रभाव व्यक्तियों के स्वास्थ्य पर भी देखने को मिल रहा है।

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डा. बालाराम परमार “हंसमुख” केंद्रीय विद्यालय से प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त होकर इन दिनों इतिहास, कला, संस्कृति और सम सामयिक विषयों पर लिख रहे हैं.