जिन्हें रावण से हमदर्दी है उनके लिए!

साँच कहै ता/जयराम शुक्ल

 

ऋषि, मुनियों ने, कवि मनीषियों ने, दार्शनिकों ने राम के चरित्र को ऐसे गढ़ा है कि यदि उस चरित्र का अंशमात्र भी कोई ग्रहण कर ले तो मनुष्यता के परम पद में पहुंच जाए। राम के चरित्र पर जितना लिखा, पढ़ा गया, जितना चिंतन मनन किया गया, मुझे नहीं लगता कि विश्व में कोई अन्य विभूति ऐसी होगी।

 

 

 

"त्रिलोक विजेता प्रकांड पंडित प्रचंड पराक्रमी परम शिवभक्त महान साहित्यकार लंकेश दशानन को षडयंत्र पूर्वक उसके भाई को मिला कर उसकी हत्या कर इस कपटी दुनिया से मुक्त कराने के दिन की बधाई।"

 

पिछले दशहरे के मौके पर एक शुभचिंतक ने जस का तस मुझे यही संदेश भेजा। यह उन्होंने भले ही खिलदंडई में भेजा हो पर संदेश में झलकता मिला कि एक महापंडित विद्वान बौद्धिक को किस तरह कपटपूर्वक घेर कर मारा गया। इन दिनों इसी तरह के बहुत से संदेश मिल रहे हैं, जिसमें रावण का नाना प्रकार से महिमामंडन किया गया है। ऐसा संदेश भेजने वाले निश्चित ही काफी पढ़े लिखे और चैतन्य लोग हैं, कुछ तो बड़े नामवाले भी। निष्कर्ष निकालें तो यह ध्वनित होता है कि रावण निर्दोष था। सूर्पनखा के अपमान का बदला सीता का अपहरण कर उसने कोई गलती नहीं की। राम ने रावणजी के साथ न्याय नहीं किया, धोखाधड़ी करके मारा। इन संदेशियों की कोशिश कुछ ऐसी लगी कि राम को रावण की हत्या के आरोप में कठघरे में खड़ा किया जाना चाहिए।

 

मुझे ऐसा लगता है कि यह प्रपंच भी उन्हीं लोगों की मुहिम का हिस्सा है जो भगवती दुर्गा की बजाय महिषासुर को पूजने की बात करते हैं और जेएनयू में ऐसे विषयों पर संगोष्ठियां आयोजित करते, करवाते हैं। सोशल मीडिया उनके अस्त्र के रूप में इस्तेमाल हो रहा है। उनके कुतर्कों के फेर में साधारण जन भी फँस रहे हैं। क्योंकि वे बार - बार याद दिलाते हैं कि रावण ब्राहमण था। ये सब काम सुनियोजित ढंग से परदे के पीछे से चल रहा है। अब तो दशहरे के अवसर पर रावण के पक्ष में टिप्पणियों का सिलसिला चल निकलता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जब मर्यादाहीन हो जाती है तो कुछ इसी तरह की दिमागी अराजकता, स्वच्छन्दता और उच्छृंखलता में परिवर्तित हो जाती है। हम बोलने की आजादी की दुहाई देने वालों द्वारा रचित इस घिनौने दौर के पेश-ए-नजर हैं। ये सब बातें जब एक साथ सामने प्रगट हो जाती हैं तो सिर चकराने लगता है, कुछ सूझता नहीं मुँह से बस.. हे राम ही निकलता है।

 

राम और रावण को मैं इतिहास के चरित्र और काव्यतत्व से ज्यादा दर्शन और चिंतन-मनन का विषय मानता हूँ। वाल्मिकी रामायण, रामचरित मानस का कई बार पारायण किया। हर बार नए - नए सूत्र और संकेत निकल कर सामने आए। पूज्यपाद रामकिंकर महाराज को एक दो बार सुनने का अवसर मिला। उनके प्रवचन संग्रह भी रुचि पूर्वक पढ़े। रामत्व को समझने में इनके प्रवचन इतने सरल और बोधगम्य हैं कि रामायण और रामचरित को समझना और सुगम हो जाता है। राम पौरुष की पराकाष्ठा हैं। उनका आचार, व्यवहार, संस्कार की ही महिमा का सुफल है कि आक्रांताओं के आक्रमण और हजारों वर्ष की गुलामी के बाद भी हम अपनी सभ्यता और संस्कृति के अवशेष के साथ बचे हुए हैं। रामचरित न सिर्फ भारत के लिए अपितु समूचे विश्व के लिए सामाजिक प्रतिष्ठा का सर्वोच्च मानदंड है। इसलिए हम राम को रोम, रोम में, कण-कण और क्षण-क्षण में बसने की कामना करते हैं। ऋषि, मुनियों ने, कवि मनीषियों ने, दार्शनिकों ने राम के चरित्र को ऐसे गढ़ा है कि यदि उस चरित्र का अंशमात्र भी कोई ग्रहण कर ले तो मनुष्यता के परम पद में पहुंच जाए। राम के चरित्र पर जितना लिखा, पढ़ा गया, जितना चिंतन मनन किया गया, मुझे नहीं लगता कि विश्व में कोई अन्य विभूति ऐसी होगी।

 

देश की जितनी भाषाएं, जितनी बोलियां हैं, प्रदर्शनकारी कलाओं के जितने रूप हैं, राम उन सबमें विद्यमान हैं। भारत में भले ही अनेक धर्मावलंबी, मतावलंबी, पंथानुयायी हैं, सभी में राम के संस्कार व्याप्त हैं। उनका चरित्र हर धर्म व संस्कृति का पैरामीटर है। राम वैश्विक धरोहर हैं। कभी चित्रकूट जाइए तो "राम दर्शन" वीथिका एक बार अवश्य देखिए। यह स्तुत्य काम नानाजी देशमुख के मार्गदर्शन में हुआ। इस वीथिका में संदर्भ और प्रमाण के साथ आपको रामचरित के विस्तार की वैश्विक झलक देखने को मिलेगी। हमारे राम कहां नहीं हैं..चीन, जापान, इंडोनेशिया, कोरिया, रूस, यहां तक कि अरब भूमि में भी राम के चरित्र का विस्तार मिलेगा। रामचरित का विस्तार दजला-फरात,मिसीपोटामिया सभ्यता में भी दिखता है। एक बार संगोष्ठी में एक विद्वान ने बताया था - फलस्तीन का रामल्ला और ईरान का रामसर शहर राम के नाम से ही निकले हैं। रामल्ला में कभी रामलला जी की प्राण प्रतिष्ठा रही है। ऐसे ही रामसर में भी है।

 

रीवा के महाराजा विश्वनाथ सिंह ने हिंदी के प्रथम नाटक "आनंद रघुनंदन" की रचना की है। लंका विजय के बाद अयोद्धा में जब राम का राज्याभिषेक होता है, उस अवसर पर यवन, तुर्क, अँग्रेज और भी अन्य देशों के प्रतिनिधि आते हैं और उपहार भेंट करने के साथ राम की भगवान के रूप में स्तुति करते हैं। नाटक में यह दृश्य प्रभावशाली ढंग से चित्रित किया गया है। हमारे पुरखों का इतिहास और सनातनी संस्कृति श्रुति और स्मृति परंपरा से प्रवाहित होकर पहुंची है। राम, कृष्ण के अस्तित्व के संबंध में स्वामी विवेकानंद जी ने यूरोप, अमेरिका की धर्मसभाओं में यही तर्क देकर जिज्ञासुओं की शंका का समाधान किया था। लैखिक इतिहास के बनिस्बत वाचिक इतिहास ज्यादा निर्दोष होता है।

 

राम हमारी सनातन धरोहर हैं। गांधी ने इसीलिए रामनाम को मरते दम तक सीने से चिपकाए रखा। रघुपति राघव राजाराम,पतित पावन सीताराम, यह बापू का प्रिय भजन था और इसको स्वर देने में न कभी मौलाना अब्दुल कलाम आजाद पीछे हटे, न ही अब्दुल गफ्फार खान जिन्हें सीमांत गांधी कहा जाता था। रामत्व के मर्म को गांधी से ज्यादा कौन जानता है?  ये रामत्व ही गाँधीजी को समूचे विश्व में सर्वपूज्य बनाए रखा है। इस बात को अच्छे से समझ लेना चाहिए कि राम हमारी संस्कृति, हमारे राष्ट्र के प्राण हैं। जिस दिन से इनकी प्रतिष्ठा धुंधली होनी शुरू हुई उसी दिन से हमारे नाश होने की उल्टी गिनती शुरू हो जाएगी।

 

बात इस दशहरे के रावण के महिमामंडन से शुरू हुई थी। विचार चाहे किताब,लेखों के जरिये आए या सोशल मीडिया के, विचार तो विचार हैं। यह भी मायने नहीं रखता कि ये बोल बड़े आदमी के हैं या अदने के। प्रगट रूप में आ रहे या परदे के पीछे से। अयोध्या का वो धोबी भी अदना आदमी ही था जिसने सीता पर लांछन लगाया था। वो रामराज्य जीरोटालरेंस के शासनवाला राज्य था, इसलिए धोबी सकुशल रहा और सीता को वन जाना पड़ा। यह सहिष्णुता हमें राम के संस्कार से ही मिली है कि आप रावण की जय मना सकते हैं। उसके साथ अन्याय की बात कर सकते हैं। रावण राम का विलोम है। अपनी दसदिक् बुराइयों  की पराकाष्ठा के साथ। मानस और रामायणकार की परिकल्पना है कि ब्रह्मांड की समस्त बुराइयों का पुंज कोई रूप धरे तो उसकी आकृति रावण जैसी होगी। ये जो लोग रावण की प्राणप्रतिष्ठा में लगे हैं, वे या तो अज्ञानी या फिर राक्षसवृत्ति के आराधक। फिर भी मेरे प्रभु राम आप उन्हें क्षमा कर देना।

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वरिष्ठ पत्रकार श्री जयराम शुक्ल