पितृ ऋण चुकाने एवं पूर्वजों के सम्मान का अनुष्ठान
श्राद्ध पक्ष कल 2 अक्टूबर को समाप्त हो रहा है। इस अवसर पर केंद्रीय विद्यालय संगठन से सेवानिवृत्त प्राचार्य डॉ. बालाराम परमार 'हॅंसमुख' का सारगर्भित आलेख श्राद्ध पक्ष: पितृ ऋण चुकाने एवं पूर्वजों के सम्मान का अनुष्ठान आप सुधी पाठकों के अवलोकनार्थ प्रस्तुत है.. सम्पादक.. ।
श्राद्ध पक्ष:..............
पितृ ऋण चुकाने एवं पूर्वजों के
सम्मान का अनुष्ठान
* डा. बालाराम परमार "हंसमुख"
वेद, पुराण, शास्त्र और ऋचाओं में वर्णित श्लोकों के आलोक में कहा जा सकता है कि श्राद्ध अनुष्ठान से पितृों की आत्माएं तृप्त और शांत होती हैं। पितृ ऋण से मुक्ति मिलती है। इस प्रकार मृत आत्माओं को शांति और मोक्ष प्राप्ति संस्कार पूर्ण होता है। फलस्वरूप परिवार में सुख और समृद्धि आती है और पितृों का आशीर्वाद प्राप्त होता है।
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पौराणिक कथाओं एवं गरुड़ पुराण, महाभारत, और मनुस्मृति में श्राद्ध का वर्णन मिलता है कि भगवान विष्णु ने सोलह श्राद्ध की स्थापना की थी। श्राद्ध पक्ष हिंदू धर्म में एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान है जो 16 दिनों तक चलता है, जिसमें प्रत्येक दिन एक विशेष तिथि होती है जिसे श्राद्ध कहा जाता है। प्रियजन की मृत्यु की तिथि अर्थात पड़वा से लेकर पूर्णिमा के बीच प्रभु गमन तिथि के हिसाब से 1 वर्ष या 2 वर्ष बाद श्राद्ध अनुष्ठान का कार्यक्रम रखा जाता है।
श्राद्ध पक्ष से संबंधित संस्कृत श्लोक इस प्रकार से हैं। "पितृऋणं तु यो न तर्पयेत्। तस्य पितरो नंदन्ति।।"अर्थात जो व्यक्ति अपने पितृऋण को नहीं चुकाता, उसके पितरों की आत्मा भटकते रहती है।
"श्राद्धं तु कर्मणा युक्तिः।
पितृऋणं तु तर्पणम्।।" अर्थात श्राद्ध करना कर्म है, और पितृऋण को तर्पण करना है।
"यः पितृऋणं न तर्पयेत्।
सः पितृहीनः स उच्यते।।" अर्थात जो व्यक्ति अपने पितृऋण को नहीं चुकाता, वह पितृ हीन कहलाता है।
" पितरः प्रीयन्ते श्राद्धेन।
तृप्ताः पितरो मोक्षदाः।।" अर्थात पितृ श्राद्ध से प्रसन्न होते हैं और तृप्त होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं।
" श्राद्धकर्मणि यः क्रियः।
सः पितृऋणम् तर्पयेत्।।" अर्थात जो व्यक्ति श्राद्धकर्म करता है, वह अपने पितृऋण को चुकाता है।
इस प्रकार सनातन धर्म में श्रद्धा और भक्ति प्रकट करने के अनुष्ठान की परंपरा मृत आत्माओं की शांति और मोक्ष की कामना, पितृ ऋण चुकाने तथा धार्मिक कर्तव्यों का पालन करने के लिए किया जाता है।
श्राद्ध अनुष्ठान में पिंड दान जिसमें दूध, घी और अनाज से बने पिंड को किसी जलाशय या नदी किनारे पूर्वजों को अर्पित (तर्पण)किया जाता है।
भारतीय सश्य श्यामला को तीज़- त्योहार और संस्कार की धरती कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। संस्कार पूर्वजों के जीवन में घटित वे महत्वपूर्ण घटनाएं और अनुभव हैं जो जन्म पूर्व से लेकर मृत्यु तक चलते रहते हैं एवं इंसान को व्यक्तिगत और आध्यात्मिक रूप से विकसित करने में मदद करते हैं। जैसे- गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्नयन जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, मुंडन, विद्यारंभ, यज्ञोपवीत, विवाह और अंतिम संस्कार।
इसी कड़ी में श्राद्ध अनुष्ठान अंतिम संस्कार के बाद परिवार के सदस्यों द्वारा किया जाने वाला संस्कार है। जिसे मृत आत्मा देखतीं नहीं है पर अपने जाने के बाद देवलोक गमन का अनुभव करवाती है । इस संस्कार के प्रतिपादन का उद्देश्य व्यक्ति को जीवन के विभिन्न चरणों में आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों को समझने और उनका पालन करने की शिक्षा देना है।
हमारा देश भारत मे पांच सौ साल मुगलों और दो सौ साल अंग्रेजों का गुलाम रहा है। मैकाले की शिक्षा नीति के चलते भारतीय संस्कृति और परम्पराएं तहस नहस हो गई। स्वतंत्रता के बाद संविधान में अभिव्यक्ति की आजादी का दुरूपयोग होने लगा । बेमतलब और बिना सिर पैर के सनातन संस्कृति और परम्पराओं का फुहड़ता से मजाक उड़ाया जाने लगा ।
विदेशी ताकतें जो भारत को फलता फूलता देखना नहीं चाहती हैं वे विध्वंसकारी और षड्यंत्रकारी संगठनों को धन का प्रलोभन देते हैं। उनके प्रभाव में आकर अनेक संगठन और संस्थाओं ने हिंदू धर्म के बारे में प्रपोगंडा शुरू कर दिया। देवी देवताओं के पहनावे और वाहन को लेकर अनर्गल बातें करते हैं। जैसे कि श्राद्ध अनुष्ठान में कौवे को बुलाकर नैवेद्य डालने की प्रथा को लेकर अनाप-शनाप अपशब्द बोले जाते हैं। सोशल मीडिया पर कौवों के रूप में पूर्वजों की वार्तालाप के फुहड़ वीडियो भी देखने को मिलते हैं।
सनातन संस्कृति- सभ्यता और परंपरा का अल्प ज्ञान रखने वालों के संज्ञान में लाया जाता है कि अन्य धर्म की भांति हिन्दू धर्म में कौआ को पितृों का दूत माना गया है। इसलिए पितृों की आत्मा के रूप में श्राद्ध अनुष्ठान के लिए आमंत्रित करते हैं। काग ऋषि को नैवेद्य अर्पित किया जाता है, जो उन्हें शांति, तृप्ति, शक्ति और ऊर्जा प्रदान करता है। हिन्दू धर्म में नैवेद्य को पवित्र और शुद्ध माना जाता है।
ववद, पुराण, शास्त्र और ऋचाओं में वर्णित श्लोकों के आलोक में कहा जा सकता है कि श्राद्ध अनुष्ठान से पितृों की आत्माएं तृप्त और शांत होती हैं। पितृ ऋण से मुक्ति मिलती है। इस प्रकार मृत आत्माओं को शांति और मोक्ष प्राप्ति संस्कार पूर्ण होता है। फलस्वरूप परिवार में सुख और समृद्धि आती है और पितृों का आशीर्वाद प्राप्त होता है।
ऐसा नहीं है कि यह सांस्कृतिक परंपरा केवल सनातन धर्म में विद्यमान है। बौद्ध और ईसाई धर्म में भी श्राद्ध मनाने की प्रथा है। बौद्ध धर्म में इसे "पिटृ पूजा" या "श्राद्ध पूजा" कहा जाता है। बौद्ध धर्म में पिटृ पूजा के दिन बौद्ध भिक्षुों को भोजन कराया जाता है और पूर्वजों के नाम पर दान और पूजा की जाती है। बौद्ध मंत्रों का जाप किया जाता है तथा पूर्वजों की आत्माओं को शांति और मोक्ष की कामना की जाती है। बौद्ध नए साल (लोसार) एवं बुद्ध पूर्णिमा या धम्मचक्र परिवर्तन दिवस पर इस तरह का त्योहार मनाते हैं।
31 अक्टूबर को ईसाई धर्म मानने वाले हैलोवीन त्योहार मृत आत्माओं को याद करने और सम्मान करने के लिए मनाते हैं। शांति और मोक्ष की कामना करते हैं।
हैलोवीन में कोस्ट्यूम पहनना, ट्रिक-या-ट्रीट जैसी परंपराएं होती हैं।
इन अंतरों के बावजूद, तीनों धर्म के अनुष्ठान मृत आत्माओं को याद करने और सम्मान करने के लिए मनाए जाते हैं । इस संदर्भ श्राद्ध अनुष्ठान हिंदू बौद्ध और ईसाई धर्म में महत्वपूर्ण धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व रखता है।
अब बात आती है कि भारत में नव बौद्ध, ईसाई, बामसेफ, भीम और वीम जैसी विचारधारा के लोग हिंदू धर्म की प्रथाओं को मिथ्या और आडंबर क्यों मानते हैं ? इसका प्रमुख कारण है भारतीय समाज में व्याप्त जातिवाद, असमानता, और अन्याय !!
डॉ भीमराव अम्बेडकर ने अपने विचारों में समाज में व्याप्त कुरीतियों और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई थी और समानता, न्याय और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की वकालत की थी। इस कारण अंबेडकरवादी विचारधारा को मानने वाले (विशेष रूप से अनुसूचित जाति- जनजाति और पिछड़ा वर्ग के लोगों की मान्यताएं है कि सनातन धर्म की कई प्रथाएं और रीति-रिवाज हिंदू धर्म के चारों वर्णों में व्याप्त असमानता और जातिवाद को बढ़ावा देने वाले कारक हैं। इसलिए मार्क्सवादी और अंबेडकरवादी इन प्रथाओं को मिथ्या और आडंबर मानते हैं । निंदा करते हुए इनके स्थान पर समाज में समानता, न्याय, और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की स्थापना की वकालत करते हैं। एक और विशिष्ट कारण यह है कि वर्ण व्यवस्था में ये धार्मिक सामाजिक अनुष्ठान रूढ़िवादी समाज में कट्टरता को बढ़ावा देते हैं और व्याप्त सहिष्णुता और सौहार्द को कमजोर करते हैं। कई प्रथाएं ऐसी भी हैं जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता को कमजोर करती हैं और व्यक्ति को अपने निर्णय लेने की आजादी से वंचित करती हैं।
खैर ! मत-मतांतर अपनी जगह पर सही या ग़लत हो सकते हैं । लेकिन इसका यह मतलब कदापि नहीं हो सकता कि एक दूसरे के धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक महत्व के तीज़ त्योहार मनाने पर भद्दी टीका टिप्पणी करें। सभ्य समाज का तकाजा है कि सभी धर्म- जाति- वर्ग के लोग अपनी गिरेबान में झांके और मर्यादा में रहते हुए मर्यादित भाषा का प्रयोग करें।
सदैव स्मरण रहे -
धर्म नहीं सिखाता आपस में बेर रखना।
सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा।।
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डॉ बालाराम परमार 'हॅंसमुख'