रावण को कहीं गोली मारते हैं तो कहीं करते हैं पूजा
रावण को कहीं गोली मारते हैं तो कहीं करते हैं पूजा
भोपाल. . भारत में आज नवरात्रि पर्व के समापन के दूसरे दिन विजयादशमी, दशहरा का पर्व श्रद्धा और हर्षोल्लास के साथ मनाया जा रहा है। असत्य पर सत्य की जीत, बुराई पर अच्छाई की जीत जैसे संदेशों की आज बाढ़ सी आ गई है। सभी शहरों और ग्रामीण इलाकों में दशहरा के अवसर पर शस्त्र, वाहन आदि की पूजा के बाद सांयकाल रावण, कुम्भकर्ण और मेघनाथ के पुतलों का दहन किया जाएगा। रावण दहन की सभी तैयारी पूरी कर ली गई हैं।
रावण, कुम्भकर्ण और मेघनाथ के पुतलों को आग्नेय अस्त्र अर्थात बाणों पर आग लगाकर मारकर जलाते हैं लेकिन कुछ स्थानों पर बाणों के स्थान पर बंदूक से गोली चलाकर रावण को मारने के बाद जलाते हैं। कहीं रावण की पूजा भी की जाती है ।
आईये अब हम आपको बताते हैं कि रावण दहन की पारम्परिक प्रथा से अलग रावण को किस तरह मारते हैं....
मध्यप्रदेश के शाजापुर जिला के ग्राम पनवाड़ी में मिट्टी से बने रावण के पुतले को लायसेंसी बंदूकों की गोलियों से भूनने का अनूठी परम्परा है। शाजापुर जिला मुख्यालय से कोई 15 किलोमीटर दूर पनवाड़ी गांव की आबादी लगभग 8 हजार है और यहां रावण के पुतले को गोलियों से भूनने की परम्परा को करीब एक सदी हो गई है। शाजापुर जिला का कभी भाग रहा आगर जिला मुख्यालय के वरिष्ठ पत्रकार श्री महेश शर्मा ने बताया कि करीब आठ फीट उंचे और चार फीट चौड़े रावण की प्रतिमा बनाने का कार्य स्थानीय कलाकारों ने आज सुबह शुरू कर दिया है। मिट्टी से बन रही इस रावण की विशालकाय प्रतिमा के नाभि के स्थान पर लाल रंग से पटाखों से भरा एक बड़ा मटका रखा गया है। स्थानीय निवासी सूर्यास्त के पूर्व पुतले की पूजा करेंगे था। इसके बाद गांव के ही 20-25 बंदूकधारी युवक कतारबद्ध दूर खड़े होकर बारी-बारी से रावण के पुतले पर लायसेंसी बंदूक से निशाना साधेंगे। गोलियां चलाने का क्रम तब तक जारी रहता है जब तक कि नाभि के स्थान पर रखा मटका न फूट जाए।
ऐसी ही परम्परा राजस्थान के झुंझुनूं जिले के उदयपुरवाटी कस्बे में करीब 400 साल से चली आ रही है। रावण के पुतले के साथ-साथ उसकी सेना पर बंदूकों से अंधाधुंध फायरिंग की जाती है। दादू पंथी समाज की रावण के पुतले को जलाने से पहले गोलियां चलाने की इस परम्परा को देखने दूर दूर से लोग देखने आते हैं। नवरात्र के पहले दिन परंपरागत तरीके से चांदमारी क्षेत्र में बंदूकों से रिहर्सल की जाती है। नवरात्र में घट स्थापना के साथ ही दादूपंथियों का दशहरा उत्सव भी शुरू हो जाता है। जमात स्कूल में स्थित बालाजी महाराज मंदिर में ध्वज फहराकर महोत्सव की शुरुआत की जाती है। उत्सव के दौरान विजय पताका फहराने के लिए रणभेरी, नोबत, ढोल, ताशा व झांझ बजने शुरू हो जाते हैं। दशहरा उत्सव के वक्त हर रोज दुर्गा सप्तशती व दादूवाणी के पाठ, चांदमारी की रस्म, श्री दादू मंदिर और बालाजी मंदिर में विशेष आरती होती है। करीब 400 वर्षों से चली आ रही यह परम्परा इस साल शायद पूरी नहीं निभाई जा सकेगी। क्योंकि पुलिस ने नए कानून प्रावधान के तहत दादूपंथी अखाड़े को अनुमति नहीं दी है. इसलिये इस साल तीर कमान से रावण के पुतले का दहन होगा। दादूपंथी समाज के इस अनोखे दशहरा महोत्सव में रावण की सेना को देखने के लिए भी लोगों की भीड़ एकत्रित होती है। यहां पर रावण दहन के दौरान मिट्टी के खूब सारे मटके रखे जाते हैं और फिर इसे सफंद रंग से रंगा जाता है। इन मटकों को एक-दूसरे के ऊपर इस तरह से रखा जाता है कि रावण के दोनों तरफ असली सेना नजर आती है। सबसे पहले सेना पर गोलियां दागी जाती हैं। इसके बाद रावण को गोली मारी जाती है।
राजस्थान के ही रोपा गांव में रावण का वध किया जाता है। गांव के चौराहे में रावण की सीमेंट से बनी हुई प्रतिमा है, इस वजह से रोपा को रावण का गांव नाम से भी जाना जाता है। टी.वी. भारतवर्ष के अनुसार रोपा में अधिक बोली लगाने वाला युवक भगवान राम बनता है। बोली से एकत्र राशि धार्मिक आयोजन में खर्च की जाती है। रोपा गांव में पिछले 85 सालों से 10 फीट ऊंचे रावण की सीमेंट से बनी स्थाई प्रतिमा है। दशहरे पर स्थाई प्रतिमा को रंगों से रंग कर वध के लिए तैयार किया जाता है। गांव वालों का मानना है कि लक्ष्मण ने जिससे ज्ञान प्राप्त किया हो उसको इंसान कैसे जला सकता है। इस वजह से गांवों में रावण को जलाया नहीं जाता है। रावण वध की परंपरा किसने शुरू की, इस बात की कोई पुख्ता जानकारी तो नहीं है लेकिन ऐसा माना जाता है कि कई दशकों सेरोपा में दशहरे के दिन रावण का वध करने की परंपरा है। पहले रावण की प्रतिमा मिट्टी से बनी थी, लेकिन कई सालों पहले इसे सीमेंट की बनवा दी गई। रोपा में दशहरे से एक दिन पहले लंका दहन का आयोजन किया जाता है। इस दौरान गांव के भगवान चारभुजा नाथ मंदिर से ठाकुर जी की शोभायात्रा निकाली जाती है। शोभायात्रा के बाद हनुमान बने बाल कलाकार रावण चौक पहुंचते हैं और फिर लंका दहन करते हैं। गांव में जो सबसे ज्यादा बोली लगाता है वो ही राम बनता है। वहीं इससे थोड़ा बोली लगाने वाला लक्ष्मण बनता है। रावण का वध करने के लिए गांव के चौराहे पर बनी प्रतिमा के पेट पर मटकी बांधी जाती है, जिसे भगवान राम बना कलाकार चारभुजा नाथ मंदिर में रखे हुए भाले से फोड़ता है।
इधर दिल्ली से सटे ग्रेटर नोएडा के बिसरख गांव में दशहरा के अवसर पर रावण दहन नहीं किया जाता है। इस गांव में रावण का एक मंदिर भी है। इस मंदिर में रावण के पिता ऋषि विश्वश्रवा द्वारा स्थापित अष्टकोणीय शिवलिंग है। मान्यता है कि रावण और उनके भाई कुबेर इस शिवलिंग की पूजा करते थे। रावण ने भगवान शिव की तपस्या करते हुए इसी शिवलिंग पर अपने सिर अर्पित किए थे, जिसके बाद भगवान शिव ने उन्हें 10 सिर होने का वरदान दिया था।
उत्तरप्रदेश के मिर्जापुर जिले के ड्रमंडगंज में रावण के पुतले को जलाया नहीं जाता बल्कि पुतले का सिर कलम किया जाता है। यह परंपरा करीब एक सौ साल से चली आ रही है। रावण के पुतले के सिर को कटते देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं। अमर उजाला में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार ड्रमंडगंज के मैदान में परंपरानुसार विजयादशमी के दिन शाम को भगवान राम और लंकापति रावण के बीच युद्ध का मंचन होता है। उसके बाद देर शाम जब भगवान राम रावण का वध करते हैं तो बाण लगते ही अत्याधुनिक ऑटोमेटिक इलेक्ट्रॉनिक सिस्टम से बने लोहे के 100 मुख वाले रावण का सिर धड़ से अलग हो जाता है। पहले लोहे से बने एक मुख वाले रावण के पुतले का सिर कलम होता था। बाद में 15 वर्षों से अत्याधुनिक तरीके से लोहे के 10 मुख वाले रावण के पुतले का निर्माण हुआ। इसे प्रति वर्ष जीर्णोद्धार के बाद विजयादशमी के मेले के लिए तैयार किया जाता है।
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